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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, May 9, 2009

संत्रस्त

महेंद्र भटनागर

दृष्टि-दोषों से सतत संत्रास्त
अर्थ-संगति हीन,
अद्भुत,
सैकड़ों पूर्वाग्रहों से ग्रस्त
हम,
सन्देह के गहरे तिमिर से घिर
परस्पर देखते हैं
अजनबी से !
और...
अनचाहे
विषैले वायुमण्डल में
घुटन के बोझ से
निष्कल तड़पते जब —
घहर उठता तभी
अति निम्नगामी
क्षुद्रता का सिन्धु,
अनगिनत
भयावह जन्तुओं से युक्त !
मनुजोचित सभी
शालीनता के बंधनों से मुक्त !
.

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