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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Wednesday, May 6, 2009

मोह-भंग

महेंद्र भटनागर

स्वीकार शायद
जो कभी भी था न
तुमको
भ्रांति उस अधिकार की
यदि आज
मानस में प्रकाशित हो गयी
सुन्दर हुआ
शुभकर हुआ !
.
अस्थिर
प्रवंचित मन !
न समझो —
प्राप्य
जीवन की
बड़ी अनमोल अति दुर्लभ
धरोहर खो गयी !
.
मूर्छा नहीं,
निश्चय
सजगता।
मोह का कुहरा नहीं,
परिज्ञान
जीवन-वास्तविकता।
.
अर्थ जीवन को मिलेगा अब
नये आलोक में,
उद्विग्न मत होना तनिक भी
शोक में !

2 comments:

Akhilesh Shukla May 6, 2009 at 1:51 PM  

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