प्रतिकार्य
महेंद्र भटनागर
रे हृदय
उत्तर दो
जगत के तीव्र दंशन का
राग-रंजित,
सोम सुरभित साँस से !
.
स्वीकार्य
जीवन-पंथ पर...
दर्द हर उपेक्षा का
शांत उज्ज्वल हास से !
.
आतिथेय
घन तिमिर के
द्वार पर
स्वर्ण किरणों की
असंशय आस से !
.
आराध्य
वज्रघाती देव
प्राण के संगीत से,
प्रेमोद्गार से
अभिरत रास से !
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रे हृदय !
उत्तर दो
जगत के क्रूर वंचन का
स्नेहल भाव से,
विश्वास से !
1 comments:
बहुत अच्छा लिखा ... बधाई।
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