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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Wednesday, April 8, 2009

प्रतिकार्य

महेंद्र भटनागर

रे हृदय
उत्तर दो
जगत के तीव्र दंशन का
राग-रंजित,
सोम सुरभित साँस से !
.
स्वीकार्य
जीवन-पंथ पर...
दर्द हर उपेक्षा का
शांत उज्ज्वल हास से !
.
आतिथेय
घन तिमिर के
द्वार पर
स्वर्ण किरणों की
असंशय आस से !
.
आराध्य
वज्रघाती देव
प्राण के संगीत से,
प्रेमोद्गार से
अभिरत रास से !
.
रे हृदय !
उत्तर दो
जगत के क्रूर वंचन का
स्नेहल भाव से,
विश्वास से !

1 comments:

संगीता पुरी April 8, 2009 at 9:38 AM  

बहुत अच्‍छा लिखा ... बधाई।

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