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Monday, November 3, 2008

कबीर की प्रासंगिकता

डॉ० शेर सिंह बिष्ट
इस संसार में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए जिन-जिन महापुरुषों ने भी अपने जीवन काल में संघर्ष किया और अपने लक्ष्य में सफल हुए, उनकी प्रासंगिकता प्रत्येक युग में बनी रहती है और तब तक बनी रहेगी जब तक मानव जाति का अस्तित्व रहेगा। भगवान गौतम बुद्ध, पैगम्बर मोहम्मद साहब, प्रभु ईसा मसीह, गुरु नानक देव आदि तमाम ऐसे संत-महात्मा हुए हैं, जिनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। उन्हीं की श्रेणी में भक्त कवि संत कबीरदास का नाम भी लिया जा सकता है। आधुनिक युग में ऐसे ही महापुरुषों में महात्मा गाँधी और मदर टेरेसा का नाम भी जुड़ गया है। ऐसे महापुरुषों का आविर्भाव कभी कभार ही हुआ करता है।
वर्तमान युग में कबीरदास की प्रासंगिकता क्यों और कैसे है, यह जानने के लिए जरूरी है कि हम उनके जीवन-दर्शन एवं विचारधारा की उनकी रचनाओं के आधार पर सम्यक्‌ विवेचना करें।सभ्य मानव जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं - १. भौतिक जीवन और २. आध्यात्मिक जीवन। भौतिक जीवन की मूलभूत एवं प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं- रोटी, कपड़ा और मकान। इनकी आपूर्ति से मनुष्य जीवन का अस्तित्व तो बना रह सकता है, परन्तु वह जीवन सुखी हो, आवश्यक नहीं है। सुख भी व्यक्ति सापेक्ष होता है। किसी को महलों में भी सुख नसीब नहीं होता और कोई झोपड़ी में भी हरि गुन गाकर मस्त रहता है। जीवन यापन करने के लिए कर्म के साथ-साथ ज्ञान की भी आवश्यकता होती है। ज्ञान भी दो तरह का होता है-१. शास्त्रीय ज्ञान और २. व्यावहारिक ज्ञान। शास्त्रीय ज्ञान पुस्तकों के अध्ययन या आचार्यों के प्रवचनों से प्राप्त होता है तो व्यावहारिक ज्ञान जीवनगत अनुभवों से। जीवन को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने में सतगुरु की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है ताकि व्यक्ति भटकाव से बच सके।प्रकृति का नियम है कि कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता, चाहे उसका संबंध भौतिक प्रकृति से हो या मानव प्रकृति से। सृष्टिरूप कार्य के पीछे, कारणरूप स्रष्टा भी होगा, इस बात को दुनिया के लगभग सभी दार्शनिक, धार्मिक, यहाँ तक कि अधिकांश वैज्ञानिक भी मानते आये हैं, नाम-भेद हो सकता है। उस स्रष्टा को ब्रह्म, ईश्वर, खुदा, अल्लाह, गॉड, वाहे गुरु, रब, सच्चे बादशाह, परा शक्ति आदि अनेक नामों से अभिहित किया जाता रहा है।
स्रष्टा की सृष्टि में जीवन एवं जगत की सत्ता असंदिग्ध है। जीव दो तरह के होते हैं-१. मानव एवं २. मानवेतर प्राणी। जगत भी दो तरह का होता है-१. प्रकृति जगत और २. मानव निर्मित भावनागत जगत, जिसे प्रायः संसार भी कहा जाता है। स्रष्ट का श्रद्धावश परमपिता परमेश्वर कहा जाता है तो जीवन मात्र को उसकी संतान। संतान के प्रति पिता की समदृष्टि होती है, कोई ऊँच-नीच नहीं होता। संतान में पिता गुण-सूत्र (डी.एन.ए.) रूप में विद्यमान रहता है, इसे धर्माचार्य ही नहीं, विज्ञानी भी मानते हैं। प्रकारान्तर से कह सकते हैं कि जीव मात्रा में ईश्वर या ब्रह्म अंश रूप में विद्यमान होता है; अतः जीव और ब्रह्म में अंशांशीभाव संबंध रहता है। इस दृष्टि से जीव हत्या, ब्रह्म हत्या के समान है। मानव-निर्मित भावनागत संसार तमाम तरह के नाते-रिश्तों में बँधा हुआ है, और यही मनुष्य के दुःख का कारण है। बड़ा-छोटा, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि सब मानव-निर्मित है। मनुष्य जीवन नाशवान है, अतः उसके द्वारा निर्मित संसार भी अस्थाई अथवा मिथ्या है। सत्य स्थाई होता है, मिथ्या अस्थाई। मिथ्या संबंधों मिथ्या प्रतीति होती है और मिथ्या प्रतीत अंततोगत्वा दुःख का कारण बनती है। इस दुःख से संसार को उबारने के लिए ही समय-समय पर संत-महात्माओं अथवा पीर-फकीरों का मनुष्य रूप में आविर्भाव होता है। ऐसे ही संत का नाम है-कबीर (श्रेष्ठ)। उदाहरण - हिन्दू तुरक के बीच में, मेरा नाम कबीर।/जीव मुक्तावन कारनै, अविगति धरा शरीर॥१
वे ऐसे सतगुरु हैं जो ईश्वर भक्तों का न केवल उचित मार्ग-दर्शन करते हैं, वरन्‌ राहत भटके लोगों को सही राह पर लाने के लिए डाँट-फटकार भी लगाते हैं। अज्ञान में डूबे लोगों का अज्ञान दूर करने के लिए वे एक तर्कशास्त्री की भाँति ऐसी-ऐसी दलीलें पेश करते हैं कि जिससे उनका अज्ञानजनित भ्रम दूर हो सके। इसलिए वे आडम्बरों पर करारी चोट करते हैं, फिर चाहे वह पंडित, काजी, मुल्ला, मौलवी हो या साधु वेशधारी जोगी, यती अथवा संन्यासी। वे सच बात कहने से कभी नहीं चूकते, चाहे वह सच प्रिय हो या अप्रिय। वे इस मत के मानने वाले हैं कि -सत्यं ब्रूयात्‌ प्रियं बू्रयात्‌, न ब्रूयात्‌ सत्यमप्रियं। इसलिए वे अक्खड़ हैं, समझौतावादी, अवसरवादी या व्यवहार कुशलता कतई नहीं। भस्मलेपी, गुफावासी, जटाधारियों से भी दो टूक शब्दों में सच कहने की हिम्मत कबीर ही कर सकते हैं कि बाहरी दिखावा बंद करो, विकारों को त्यागकर मन पर विजय पाओ, जंगल या गुफा में वास करने के बजाय अपने भीतर स्थित प्रभु राम में रम जाओ - बनह बसे का कीजिये, जे मन नहीं तजै बिकार।/घर बन तत समि जिन किया, ते बिरला संसार॥/का जटा भसम लेपन कियै, कहा गुफा में बास॥/मन जीत्याँ जग जीतिये, जौ विषया रहै उदास॥२लेकिन घर और वन को समान बना लेने वाले तत्त्वेत्ता इस संसार में विरले ही हैं। जिसने विषयों के प्रति उदास रहकर मन जीत लिया तो समझो उसने जग जीत लिया।कबीर कुछ मामलों में बड़े ही निर्मम हैं।
वे किसी की परवाह नहीं करते। सचमुच वे ऐसे आत्माराम प्रतीत होते हैं, जिसके भीतर किसी तरह का भय या संशय नहीं रह गया है। जहाँ भी उन्हें किसी तरह का झूठ, दिखावा या बनावटीपन दृष्टिगत होता है, अपने अक्षय तरकश से सत्य के वाण-प्रहार करना प्रारम्भ कर देते हैं। प्रतिपक्षी को अपनी सफाई देने का अवसर भी प्रदान नहीं करते। वे इस अंदाज में बात करने लगते हैं कि जैसे इस संसार में उनसे बढ़कर कोई दूसरा प्रभु भक्त या आत्मज्ञानी है ही नहीं। उन्हीं की भाषा में उन्हीं पर धावा बोल देते हैं। सहजिया सम्प्रदाय के लोगों को लक्ष्य करके कहते हैं कि जो लोग सहज-सहज की बात करते हैं, उनमें किसी को सहज की पहचान तक नहीं है। सहज साधक वही है जिसने सहज की विषयों को छोड़ दिया है और जिस सहज साधना से प्रभु की प्राप्ति होती है, उसे ही सहज करना चाहिए। प्रभु-प्राप्ति के लिए किसी तरह की कृच्छ-साधना की आवश्यकता नहीं है - सहज सहज सबकौ कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।/जिन्ह सहजै हरिजी मिलैं, सहज कहीजै सोइ॥३प्रभु-भक्ति एकान्तिक साधना है, उसके लिए दिखावा या हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रभु का स्मरण मन ही मन किया जा सकता है ताकि होंठ तक न हिलें। उसके लिए भगवा वस्त्रा धारण करना, आसन लगाकर मंदिर में बैठना, पत्थर पूजना, कान फाड़ना, दाढ़ी-बाल बढ़ाना या मुड़ाना, जंगल में धूनी रमाकर काम-वासना को जलाना या गीता-पाठ करना सब व्यर्थ है। इसीलिए कबीर ने दाढ़ी-बाल बढ़ाने वालों को बकरा, काम वासना जलाने वाले को हिजड़ा और गीता बाँचने वालों को लबार कहकर सम्बोधित किया है - मन ना रँगाये जोगी कपड़ा।/आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रह्म-छाड़ि पूजन लागे पथरा॥/ कनवा फड़य जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा॥/जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होय गैले हिजरा॥/मथवा मुँड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँच के होये गैले लबरा॥/कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा॥४
कबीर संसार के लोगों को समझाते-समझाते थक गए, लेकिन लोग हैं कि गाय की पूँछ पकड़कर भवसागर पार करने के भ्रम में पड़े हुए हैं, या फिर काशी में शरीर त्यागने को मुक्ति-प्राप्ति का द्वार मान बैठे है। यदि काशी में मरकर सभी मुक्त हो जाते तो फिर प्रभु की कृपा की क्या आवश्यकता थी? कबीर के अनुसार जिस प्रकार जल में प्रविष्ट जल पुनः जल से पृथक्‌ नहीं हो सकता, उसी प्रकार शरीर त्यागने पर परमात्मा में प्रविष्ट आत्मा पुनर्जन्म के रूप में पृथक्‌ नहीं हो सकता। अतः कोई पुनर्जन्म के भ्रम में न पडे। जिसके हृदय में राम का निवास है उसके लिए काशी और ऊसर मगहर (मगध गृह) दोनों बराबर हैं - लोका मति के भोरा रे।/जो कासी तन तजै कबीरा तो रामहि कहा निहोरा।/.../ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, यूँ ढुरि मिलै जुलाहा॥/राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा॥/.../कहै कबीर सुनहु रे संतो भ्रमि परे जिनि कोई।/जस कासी तस मगहर ऊसर, हिरदैं राम सति होई॥५मुक्ति प्राप्ति का एक मात्र उपाय है - प्रभु का सान्निध्य। प्रभु का सान्निध्य बाह्य साधनों - जप, माला, छापा-तिलक, तप, व्रत, उपवासादि से नहीं हो सकता। असली उपाय है मन को सर्वतोभावेन प्रभु के चरणों में लगाना - माला फेरत जुग गया, गया पाया न मन का फेर।/कर का मन का छाड़ि कै मन का मनिका फेर॥६माला हाथ में फिरती है, जीभ मुँह के भीतर और मन चारों दिशाओं में फिरता रहता है। ऐसे में नामोच्चारण मात्र से किया गया हरि-स्मरण भावहीन एवं दिखावा मात्र है, जिससे प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः मनसा-वाचा-कर्मणा प्रभु के चरणों में समर्पित होने की आवश्यकता है - माला तौ कर में फिरै, जीव फिरै मुख माहि।/मनुवा तौ चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहि॥७
इससे ऐसा लगता है कि, मानों माला ही, माला फिराने वालों पर व्यंग्य कर रही हो कि अपना मन तो विषयों से हटाकर प्रभु के चरणों में लगा नहीं पा रहे हो, मुझे काहे को फिरा रहे हो - कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।/मन न फिरावै आपणों, कहा फिरावै मोहि।८
इसी तरह कुछ लोग (जैसे बौद्ध भिक्षु) सिर मुड़ाकर ईश्वर-भक्त होने का ढोंग रचते हैं। यदि सिर मुड़ा कर प्रभु मिलते होते तो सभी सिर मुड़ा लेते। बार-बार (ऊन प्राप्ति के लिए) शरीर मुड़ाये जाने पर भेड़ वैकुण्ठ नहीं चली जाती - मूँड़ मुड़ाये हरि मिलै, सब कोई लेहु मुँड़ाय।/बार-बार के मूँड़ने, भेड़, वैकुण्ठ न जाये॥९जिस तरह से कबीर बाह्माचारों के विरोधी हैं, उसी तरह मंदिर-मस्जिद और मूर्ति-पूजा के भी विरोधी हैं। चूँकि वे निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं इसलिए उनके लिए ये सभी बाह्याचार निरर्थक हैं। परन्तु कबीर विरोध के लिए, किसी चीज का विरोध नहीं करते। उनका विरोध सकारण होता है। उनके तर्क अकाट्य होते हैं। वे कहते हैं कि पत्थर पूजने से यदि प्रभु मिलते तो मैं उस पहाड़ को ही पूजता, जहाँ से मूर्ति का पत्थर निकाला गया था। उस पत्थर की मूर्ति से तो यह चक्की अच्छी, जिसमें सारा संसार पीस खा रहा है - पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजू पहार।/ताते यह चाकी भली, पीसि खाय संसार॥१०
दरअसल पत्थर का जगदीश बनाकर, मूर्तिपूजा को लोगों ने कमाई का धंधा बना लिया है। यह प्रस्तर प्रतिमा शत प्रतिशत खोटे सिक्के के समान है जिसे खरीद तो लिया है पर वह बोलता नहीं है - मूरित धरि धंधा रचा, पाहन का जगदीश।/मोल लिया बोलै नहीं, खोटा विश्वाबीस॥११पत्थर-पानी पूजने से तो बेहतर होता, किसी साधु-संत की सेवा की जाती, जो प्रभु-प्राप्ति का मार्ग बताता। कबीर मंदिर या मूर्तिपूजा का ही विरोध नहीं करते, वरन्‌ मस्जिद और नमाज+ अदा करने को भी निरर्थक मानते हैं - काँकर पाथर जोरि कै मसजिद लई चुनाय।/ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥१२कबीर की दृष्टि में दिन में पाँच बार नमाज पढ़ना और बंदगी (प्रार्थना) करना वगैरह सब झूठ हैं। काजी सत्य की हत्या कर झूठ पढ़ता है और प्रभु-भक्ति का काम भी बिगाड़ता है - यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज।/साचै मोरे झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज॥१३
कबीरदास को बाह्याचारों का विरोध करने की प्रेरणा एवं ताकत अपने पूर्ववर्ती हठयोगियों से मिली। लेकिन योगियों से पूर्व भी सहजयानी सिद्धों ने भिन्न-भिन्न मत के बाह्याचारों का खण्डन किया है। इस संबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि-कबीरदास ने बाह्याचारमूलक धर्म की जो आलोचना की है उसकी एक सुदीर्घ परम्परा थी। इसी परम्परा से उन्होंने अपने विचार स्थिर किये थे।१४ आगे चलकर इसमें हिन्दू धर्म के बाह्याचारों के साथ मुसलमानी धर्म के बाह्याचार भी जुड़ गए जिसका कबीर ने जोरदार खण्डन किया है तथा भक्ति को प्रधानता दी है।
कबीर बड़े आश्चर्य भरे स्वर से पूछते हैं कि जो लोग स्वयं को धर्माचार्य मानते हैं, क्या वे यह तक नहीं जानते कि ईश्वर अंतर्यामी और सर्वव्यापी है। कोई भी वस्तु या जगह ऐसी नहीं है जो उसकी उपस्थिति या दृष्टि से ओझल हो। चींटी के चलने की आवाज भी जिसे सुनाई देती हो, उसे बाँग देने या चिल्ला चिल्लाकर पुकारने की क्या आवश्यकता है? छापा-तिलक लगाने, जटा बढ़ाने या माला जपने से क्या वह मिल सकता है? जो एक-दूसरे के प्रति प्रेम के बजाय घृणा का भाव रखता हो, उसे प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती - न जानै साहब कैसा है।/मुल्ला होकर बाँग जो देवे, क्या तेरा साहब बहरा है?/कीड़ी के पग नेउर बाजे, सो भी साहब सुनता है।/माला फेरी तिलक लगाया, लंबा जटा बढ़ाता है।/अंतर तेरे कुफर-कटारी, यों नहिं साहब मिलता है।१५
कबीर ईश्वर-प्राप्ति के लिए सभी धर्मों के बाह्याचारों को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए अंतःसाधना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कबीर के इस अस्वीकार की ताकत को विश्लेषित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - सब बाहरी धर्मचारों को स्वीकार करने का अपार साहस लेकर कबीरदास साधना के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए।....किसी बड़े लक्ष्य के लिए बाधाओं को स्वीकार करना सचमुच साहस का काम है। बिना उद्देश्य का विद्रोह विनाशक है, पर साधु उद्देश्य से प्रणोदित विद्रोह शूर का धर्म है। उन्होंने अटल विश्वास के साथ अपने प्रेम मार्ग का प्रतिपादन किया। रूढ़ियों और कुसंस्कारों की विशाल वाहिनी से वह आजीवन जूझते रहे, प्रलोभन और आघात, काम और क्रोध भी उनके मार्ग में जरूर खड़े हुए होंगे; उन्होंने असीम साहस के साथ जीता। ज्ञान की तलवार उनका एकमात्रा साधन था, इस अद्भुत शमशीर को उन्होंने क्षणभर के लिये भी रूकने नहीं दिया। वह निरन्तर इकसार बजती रही, पर शील के स्नेह को भी उन्होंने नहीं छोड़ा - यही उनका कवच था। इन कुसंस्कारों, रूढ़ियों और बाह्याचारों के जंजालों को उन्होंने बेदर्दी के साथ काटा। वे सिर हथेली पर लेकर ही अपने भाग्य का सामना करने निकले थे.... वे सच्चे शूर की भाँति जूझते ही रहे।१६
वर्तमान युग विज्ञान का युग है, तर्क प्रधान ज्ञान का युग है। मध्यकाल में जब पूरा देश बाह्याडम्बरों के अंधकार में डूबा हुआ था, ऐसे में कबीर ने चीजों को तर्क की कसौटी पर देखा-परखा और लोगों में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का भरसक प्रयास किया। वे ऐसे अंधकारमय युग में सच्चे अर्थों में प्रगतिशील विचारक थे। हृदय और मस्तिष्क का ऐसा मणि-कंचन योग कबीर में ही देखने को मिलता है, जो एक ओर प्रेम-भक्ति के रस-सागर में डुबकी लगा रहे थे तो दूसरी ओर समाज में वैज्ञानिक चेतना विकसित कर रहे थे।
कबीर के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मावलंबी भ्रम में पड़े हुए हैं और झूठ का सहारा लेकर ईश्वर को पाना चाहते हैं। हिन्दू राम कह-कहकर मर गए और मुसलमान खुदा परन्तु जो इन दोनों से भिन्न राह पर चला वही जीवित रहा अर्थात्‌ कबीर का राम इन सबसे भिन्न है। कबीर स्वर्ग-नरक के चक्कर में नहीं पड़े, इसीलिए प्रभु-दर्शन कर पाए - हिन्दू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाई।/कहै कबीर सो जीवता, दुइ मैं कदे न जाइ॥१७
कबीर संसार के लोगों के पागलपन को देखकर हैरान हैं। हिन्दू एवं मुस्लिम धर्माचार्यों द्वारा फैलाये गए भ्रमजाल की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कबीर भी उन्हें उखाड़ फेंकने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। कबीर जानते हैं कि यदि वे लोगों के सामने सच बात कहेंगे तो उनके धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुँचेगी और जनता उनके विरूद्ध हो जाएगी, क्योंकि कपोल-कल्पित धार्मिक अंधविश्वास उनके संस्कार बन चुके हैं। हिन्दू राम को अपना भगवान कहते हैं और मुसलमान रहीम को अपना खुदा मानते हैं। इसी बात को लेकर आपस में लड़ मरते हैं। जबकि वे ये नहीं जानते कि दोनों एक ही हैं। कबीर की दृष्टि में ईश्वर या खुदा को प्राप्त करने के लिए अपनाए जाने वाले तमाम धर्माचार-मूर्तिपूजा, नमाज पढ़ना वगैरह सब व्यर्थ हैं। उनका पुस्तकीय ज्ञान थोथा है क्योंकि वे प्रभु के तात्विक ज्ञान से अनभिज्ञ हैं और वह ज्ञान सतगुरु द्वारा प्राप्त हो सकता है। कोई भला माने या बुरा, सच को सच कहने की ताकत यदि किसी में थी तो वह कबीर में थी और वे अपनी बात कहने से नहीं चूकते थे इसीलिए वे साधू को संबोधित करते हुए कहते हैं - साधो, देखो जग बैराना।/ साँची कहौ तो मारन, घावै झूँठे जग पतियाना।/हिन्दू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना।/आपस मैं दोऊ लड़े मरतु हैं मरम कोई नहिं जाना।/बहुत मिले मोहिं नेमी धर्मी प्रात करैं असनाना।/आतम छोड़ि पषानै पूजै तिनका थोथा ज्ञाना॥१८
अतः राम-रहीम, केशव-करीम सब एक ही हैं। इसी तरह काबा-काशी भी एक ही हैं। जिस प्रकार गेंहू के आटे का मोटा चूर्ण ही मैदा बन जाता है, वैसे ही काबा ही काशी हो गया और राम ही रहीम हो गया। इनमें कोई तात्विक भेद नहीं है - काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।/मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥१९
लेकिन वेद और कुरान इनमें भेद उत्पन्न करते हैं। जिस तरह भगवान का कोई सम्प्रदाय नहीं है, उसी तरह हिन्दू-मुसलमान का भेद भी नकली है। भ्रम फैलाने वाले द्वैत की बात करते हैं। इसीलिए कबीर कहते हैं-अरे भौंदू इंसान! सच्चाई को समझा करो। राम-रहीम एक ही है, न वह हिन्दू और न मुसलमान - अरे भाई दोई कहा सो मोहि बतायौ,/बिचिही भरम का भेद लगावौ॥/.../कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहार तुरक न हिन्दू।२०
कबीर की प्रखर प्रतिभा एवं उनके मानवतावादी दृष्टिकोण के आधुनिक आलोचक भी कायम रहे हैं, जिसकी पुष्टि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस कथन से होती है - उपासना के ब्रह्मस्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्मकाण्ड को प्रधानता देने वाले पंडितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी-खरी सुनाई और ÷राम-रहीम' की एकता समझाकर हृदय को शुद्ध और प्रेममय बनाने का उपदेश दिया। देशान्तर और उपासना विधि के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो भेद उत्पन्न हो जाता है, उसे दूर करने का प्रयत्न उनकी वाणी बराबर करती रही। यद्यपि वे पढ़े-लिखे न थे, पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी।२१कबीर की प्रतिभा ही नहीं, वाणी भी प्रखर थी। काजी को फटकार लगाते हुए वे कहते हैं -अरे, काजी! किस किताब की बात करते हो। इतने दिनों से पढ़ रहे हो, परन्तु अभी तक प्रभु का तत्त्व समझ में नहीं आया है। तुम क्या समझते हो कि सुन्नत कर देने से कोई व्यक्ति मुसलमान हो जाता है? यदि प्रभु ने मुझे मुसलमान बनाया होता तो खतना स्वयं हो जाता। पुरुष का तो सुन्नत कर दोगे, लेकिन स्त्री तो हिन्दू ही रह जायेगी क्योंकि उसका खतना नहीं हो सकता। इस तरह आधे तो हिन्दू ही रह जाओगे। अतः किताबी बातें करना व्यर्थ है। हिंसा करना कोई धर्म नहीं है - काजी कौन कतेब बखानै।/पढ़त-पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहीं जानै।/.../और खुदाई तुरक मोहि करता, तौ आपै कटि किन जाई।/हौं तो तुरक किया करि सुन्नति, औरति सौं का कहिये।/अरध सरीरी नारि न छूटै, आधा हिन्दू रहिये।२२
इस प्रकार कबीर बाह्याडम्बर करने वालों को खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकते। कबीर की इसी विशेषता को लक्ष्य करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पण्डित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी-सभी उसके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं। अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खानेवाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।२३
कबीर के लिए हिन्दू और मुसलमरान दोनों एक समान हैं। दोनों धर्मों के बाह्याचारों का उन्होंने गहराई से अध्ययन-मनन एवं विश्लेषण किया है और अंततः उन्हें निरर्थक पाया है। कबीर के चिंतन के केन्द्र में मानव कल्याण' है और इसी कसौटी पर वे इनका मूल्यांकन करते हैं। ऐसा धर्म, जो मानव-मानव के बीच न केवल भेदभाव करता हो, वरन्‌ वेश्यागामी होने पर भी जातिगत आधार पर किसी को श्रेष्ठ और सच्चरित्रा होने पर भी दूसरे को अस्पृश्य एवं नीच मानता हो, जीव हत्या एवं मांस-भक्षण को धर्म सम्मत ठहराता हो, मौसी की लड़की से विवाह को सामाजिक मान्यता प्रदान करता हो, उस पर तो कबीर तरस ही खा सकते हैं। हिन्दू और तुर्कों की जात्याभिमानजन्य अकड़ को देखकर कबीर उनकी अज्ञानता को उजागर करते हुए व्यंग्यात्मक स्वर में कहते हैं - अरे इन दोहुन राह न पाई।/हिन्दू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।/वेस्या के पाइन-तन सोवै यह देखो हिन्दुआई।/मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।/खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहिं में करै सगाई।/.../हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।/कहै कबीर सुनो भाई साधो कौन राह ह्‌वै जाई।२४
कबीर की दृष्टि में जीवन हत्या सबसे बड़ा पाप है और पापी को मुक्ति किसी भी दशा में नहीं मिल सकती, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। सबसे निरीह प्राणी है-बकरी। जो लोग बकरी खाते हैं और उसकी खाल निकालते हैं, उनका तो बकरी से भी बुरा हश्र होगा, ऐसा कबीर का मानना है - बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।/जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल॥२५
इसी तरह खुदा को प्रसन्न करने के लिए मुसलमान दिन भर रोजा रखते हैं, लेकिन रोजा खत्म होने पर रात को गाय मारते हैं। कितना विरोधाभास है व्यक्ति की कथनी और करनी में। एक ओर हत्या और दूसरी ओर खुदा से बंदगी। ऐसे में खुदा कैसे प्रसन्न हो सकता है - दिन को रोजा रहत है, रात हनत है गाय।/यह खून वह बंदगी, कहुँ क्यों खुशी खुदाय।२६ प्रत्येक जीव खुदा की संतान है और सभी उसे प्यारे हैं। सभी प्राणियों में एक ही प्रभु का निवास है। गोहत्या का विरोध करने पर थोड़ी देर के लिए हिन्दू कबीर से प्रसन्न हो सकते हैं परन्तु एक ओर जीव हत्या और दूसरी ओर प्रभु-भक्ति में कोई संगति नहीं है। उनके अनुसार जिनका हृदय पवित्र नहीं है, उन्हें बाह्य साधना से स्वर्ग नहीं, अपितु नरक ही मिलेगा - सब घटि एक एक करि जानै, भौं दूजा करि मारै।/कुकड़ी मारै, बकरी मारै, हक हक हक करि बोलै।/सबै जीव साईं के प्यारे, उबरहुगे किस बोलै।२७
हिन्दू गाय को पवित्रा मानते हैं। गोहत्या तथा गोमांस भक्षण को पाप समझते हैं, जबकि अन्य पशुओं को बाँधकर उनका मांस खाते हैं। कबीर की दृष्टि में इस तरह का भेद निराधार है। जिस प्रकार जीव सभी समान हैं, उसी प्रकार उनके शरीर का मांस भी एक ही समान है, चाहे वह मांस मुर्गी, हिरनी या गाय किसी का भी हो और जो लोग जानबूझकर मांस भक्षण करते हैं, वे हत्यारे नरक ही जाते हैं - मांस मांस सब एक हैं, मुरगी हिरनी गाय।/आँखि देखि नर खात है, ते नर नरकहिं जाय।२८
संदर्भ-ग्रन्थ१. (सं.) डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन्स, प्रा०लि०, वाराणसी, १९९६, साखी, ११९-१२०, पृ. ५४८
२.वही,पद-३००,पृ.६४७
३.वही,साखी,२१-४,पृ.२८९
४.वही,पृ.७७६
५.वही,पद-४०२,पृ.६९०
६.वही,साखी,१११-१२,पृ.४४७
७.वही,साखी,६७-६८,पृ.४०२
८.वही,साखी,२४-५,पृ.२९३
९. वही, साखी, १११-२०, पृ. ४४७
१०. वही, साखी, १०९-१, पृ. ४४४
११. वही, साखी, १०९-३, पृ. ४४५
१२. वही, साखी, १०९-१३, पृ. ४४५
१३. वही, साखी, २२-५, पृ. २८९
१४. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १२०
१५. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), पृ. ७७७
१६. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १५९
१७. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), साखी, ३१-७, पृ. ३०६
१८. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर-(कबीर-वाणी, पद-१६८), (१९८७), पृ. २७०
१९. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), साखी, ३१-१०, पृ. ३०७
२०. वही, पद-५६, पृ. ५४७२१. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, (२०३५ वि.) पृ. ५५
२२. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), पद-५९, पृ. ५४८
२३. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १८५
२४. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर-(कबीर-वाणी, पद-२४७,), (१९८७), पृ. २९४
२५. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), साखी, १४६-१८, पृ. ४८६
२६. वही, साखी, १४६-३३, पृ. ४८७
२७. वही, पद-६२, पृ. ५४९
२८. वही, साखी, १४६-६, पृ. ४८६

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