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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Friday, November 7, 2008

सुकून

शकील
मुश्ताक की शादी के तीसरे दिन सुबह नाश्ते के दौरान क़ारी रशीद अहमद बोल पड़े थे, ''सोचता हूँ कि अब हज के फ़रीजे से भी सुबुकदोश हो लूँ।''
पानी लाती गुलशन को लगा कि जग उसके हाथ से छूटकर गिर पडेगा। मुश्किल से उसने फिसलते जग को संभाला।''पैसे हैं इतने तो जरूर जाओ! ''
गुलशन के ससुर अजीज मियाँ उनकी आँखों में घूरते हुऐ बोले। दरअसल वे अनुमान लगा रहे थे कि चार बीघे की खेती और मदरसे की मुअल्लिमी (अध्यापकी) से रशीद मियाँ ने कितनी कमाई कर रखी है कि वे हज का इरादा भी करने लगे हैं।''
शुरू से ही हज के इरादे से पैसे जोड़ रहा था। पैसे कोई ज्यादा नहीं हैं मेरे पास। बस, हज के खर्च के बराबर ही हैं, पर मेरा इरादा शुरू से ही था। गुलशन और मुश्ताक की शादियों का इंतजार कर रहा था। गुलशन को तो माशाअल्लाह खुदा ने एक खूबसूरत सा बेटा भी नवाज दिया और अब मुश्ताक की शादी भी हो गई तो लगता है अपने इरादे को अमली जामा पहनाने का वक्त आ गया है।''
रशीद मियाँ मानो अपने आप से बातें करने लगे थे।''आप ने अब्बू, मुझे हज के इरादे के बारे में पहले कभी नहीं बताया?'' गुलशन ने नाराजगी भरे स्वर में क़ारी रशीद अहमद से सवाल किया।''
पहले तो किसी को भी नहीं बताया बेटा, आज ही बता रहा हूँ। वक्त से पहले बताकर क्या मिलता?!''
कारी रशीद अहमद सफाई देते से लगे। जानते थे गुलशन को उनका उससे अपने हज के इरादे को छुपा कर रखना नागवार लगा है। वह अपना अधिकार समझती है कि वे अपने सुख-दुख की हर बात उसे बताएँ। उसका अधिकार जताना वाजिब भी है। उन पर जान छिड़कती है वह। उन्होंने भी उसे नाजों से पाला है। कुरैशा जब गुलशन को जन्म देने के फ़ौरन बाद गुजर गई थी तभी उन्होंने संकल्प कर लिया था कि वे दूसरी शादी नहीं करेंगे। मदरसे के कुछ मुअल्लिम और गांव के कुछ लोग उन्हें बार-बार दूसरे निकाह की सलाह देने लगे थे। लेकिन अपने पिता जैसे ससुर और माँ जैसी सास को और सबसे बढ़कर कुरैशा की रूह को तकलीफ पहुंचाने का साहस उनमें नहीं था। कुरैशा को वे चाहते थे। ज्यादा लोगों को उन्होंने इतना नहीं चाहा था। माँ-बाप को टूटकर चाहते थे तो खुदा ने उनके बचपन में ही उन्हें अपने पास बुला लिया। उन्हें अपने माँ-बाप की बहुत धुंधली सी याद थी। गया जिले के उत्तरी हिस्से के एक अन्दुरूनी गाँव के रहने वाले थे। सात-आठ साल की उम्र रही होगी उनकी जब उनके वालिद ने उन्हें गया के एक मदरसे में हिफ्ज के लिए भेज दिया था। लेकिन मदरसा आने के बाद दुबारा वे अपने माँ-बाप से नहीं मिल सके। जिस वर्श उनका मदरसा में दाखिला हुआ था उसी साल एक दिन मदरसा के प्रबन्धक ने उन्हें बताया था कि उनके गाँव में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए हैं और कई लोगों के मारे जाने की खबर है।
दंगे थमने के बाद मदरसा के प्रबन्धक ने मदरसा के वरिष्ट मुअल्लिम कारी जमील अहमद को उन्हें साथ लेकर उनके गाँव जाने के लिए कहा था। गाँव में कुछ भी नहीं बचा था। उनके सभी परिजनों को दंगाईयों ने मार दिया था-माँ-बाप, छोटे-छोटे भाई-बहनों सभी को। उनके घर जमीन-जायदाद पर भी कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया था। रोने-धोने और चीखने-चिल्लाने के अलावा वे और कुछ नहीं कर सकते थे। कारी जमील अहमद ने उन्हें सीने से लगा लिया था। वे उन्हें वापस मदरसा ले आये थे। वे उस दिन के बाद से उन्हें बहुत अजीज रखने लगे थे। मदरसे में ही तालीम हासिल करते हुए, खुदा की इबादत में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताते हुए वे बेहद अन्तर्मुखी होते गए। मदरसे के किसी भी दूसरे तालिब इल्म से वे दोस्ती नहीं बढ़ा सके। कोई उन्हें बहुत अच्छा नहीं लगता। लेकिन कुरैशा उन्हें अच्छी लगने लगी थी। छुट्टियों में कारी जमील अहमद नवादा जिला स्थित अपने गाँव मरूई जब भी जाते उन्हें भी अवश्य साथ ले जाते। वहां कारी साहब की बीवी उन्हें माँ जैसा प्यार देतीं और कारी साहब की उनकी हमउम्र इकलौती बेटी कुरैशा उनसे बेवजह शर्माती।
वे जब मदरसा लौट जाते तो उन्हें कुरैशा की यादें सताने लगती। वे शिद्दत से अगली छुट्टी का इंतजार करने लगते। इधर वे मदरसे की तालीम मुकम्मल करते हुए पूर्ण युवा में परिवर्तित हो गए उधर मरूई में कुरैशा भी एक खूबसूरत शर्मीली जवान लड़की में तब्दील हो गई थी। तालीम पूरी कर वे गया के मदरसे में ही पढ़ाने लगे थे पर गया में उनके दिल को सुकून नहीं था। उनका दिल नवादा शहर से लगभग बीस किलोमीटर भीतर के कारी साहब के गांव मरूई में लगा हुआ था। वे कारी साहब से अपने दिल की हालत बयान कर देना चाहते थे पर साहस नहीं जुटा पा रहे थे। यह साहस उन्हें दिखाना भी नहीं पड़ा। मरूई से लौटकर एक बार कारी साहब ने उनके सामने दो प्रस्ताव रखे। पहला प्रस्ताव तो कुरैशा से विवाह का था, दूसरा मरूई में खुल रहे मदरसे में मुअल्लिम की हैसियत से काम करने का था। उन्हें तो जैसे मुंह मांगी मुरादें मिल गई थीं। उन्होंने तुरन्त हामी भर दी। इस तरह उनसे शर्माने वाली कुरैशा उनकी बीवी बनी और विवाह के वर्श भर बाद उसने मुश्ताक को जन्म दिया। मुश्ताक के जन्म के बाद उन्होंने दुनियादारी में भी दिलचस्पी लेने की कोशिश की।
मदरसे की मुअल्लिम से वक्त निकाल कर वे कारी साहब की खेती-गृहस्थी के काम को समझने का प्रयास करने लगे। आखिर वे उनके घर जवांई ही तो थे। पर नियति को शायद यह सब स्वीकार नहीं था। गुलशन के जन्म के तुरन्त बाद सब लोगों को गहरा सदमा पहुंचाते हुए कुरैशा ने आँखे मूँद लीं। कारी साहब और उनकी बीवी ने अपने बुढ़ापे में इकलौती संतान की मौत का दुख झेलते हुए नाती और नातिनी को कुछेक वर्श पाला फिर बारी-बारी इस दुनिया से कूच कर गए। वे स्वयं भी अन्दर से हिल गये थे। वे खुदा से जानना चाहते थे कि जिसे भी वे बेहद चाहते हैं क्यों खुदा उसे उनसे छीन लेता है? पर उन्होंने खुदा से यह सवाल नहीं पूछा। वे खुदा से डरते थे। वे अपने बच्चों से प्यार करते थे। इसलिए नमाजों में खुदा से दुआ करते, ''परवरदिगार, मैं अपने बच्चों को बेहद चाहता हूँ। उन्हें पूरी जिन्दगी जीने देना, उन्हें बेवक्त की मौत न दे देना।
मौत ही देनी हो तो मुझे देना, मेरे बच्चों को बख्श देना।''वे इबादत में पूरी तरह डूबते चले गये और उन्होंने खुदा से हज का वादा किया। उन्होंने वादा किया कि वे दोनों बच्चों की शादी के बाद हज करेंगे। किस्मत से गुलशन की शादी मरूई में ही कारी साहब के दूर के रिश्तेदार अजीज मियां के बेटे सिराज से हो गई। और अब जबकि मुश्ताक की भी शादी हो गई तो उन्हें लगा कि अब अपने दिल की बात उन्हें जाहिर कर देनी चाहिए।गुलशन ने याद किया कि बस्ती में उसके होश में जिन तीन-चार लोगों ने हज किया वे हज के बाद ज्यादा दिन जीवित नहीं रहें। हज के बाद मानो लोग सिर्फ मौत के दिन गिनते रहते हैं। वह अब्बू की मौत नहीं देख सकती थी। वह बेचैन हो गई, ''अब इतनी जल्दी क्या है अब्बू? कभी जाइएगा ना!''''अब बेटा हज का इरादा तो खुदा दिल में पैदा करते हैं और जो तुम्हारे अब्बा जाना चाहते हैं अगर अगले ही बरस तो उन्हें हो आ लेने दो!'' जवाब उसके अब्बा की बजाए उसके ससुर अजीज मियां ने दिया था। गुलशन को बाप-बेटी के बीच ससुर का खुद को घसीट लेना अच्छा तो नहीं लगा पर वह उनका भी बहुत लिहाज करती थी। इसलिए खामोश हो गई। लेकिन उसके दिल में मानो कहीं कोई चीज चुभ गई थी। शादी-ब्याह का हंसी खुशी से भरा माहौल अचानक अनाकर्शक लगने लगा था। वह सबों को नाश्ते और बातचीत में व्यस्त छोड़कर उस कमरे में चली आई जिसमें उसका छः मास का बेटा मेराज बिस्तर पर सोया हुआ था।
वह गुमसुम सी उसके पास ही बैठ गई। उसे अपना दिल डूबता हुआ सा लग रहा था। बेचैनी से उसके पेट में हल्की मरोड़-सी होने लगी थी।बेटे मेराज को सुला लेने के बाद भी गुलशन जब सिराज से असंपृक्त-सी खामोशी के साथ बिस्तर पर पड़ी रही तो उसने खुद पहल करते हुए उसे सम्बोधित किया, ''गुलशन''!गुलशन ने सिराज की ओर करवट बदल ली और खामोशी से उसकी आँखों में देखा। सिराज उसकी सूनी आँखें देखकर व्यथित हुआ। वह जानता था गुलशन की जिन्दगी में उसके अब्बू का क्या महत्व है। वह उसके नर्म और नाजुक स्वभाव से भी परिचित था बल्कि इसी वजह से उसने उससे शादी की। उसे तेज आवाज में बातें करने लगी, गालियां बकने और कोसने देने में माहिर लड़कियाँ पसंद नहीं थीं। वह बचपन से उसके संजीदा स्वभाव से परिचित था और सच तो यह था कि वह उससे प्यार करता था।''गुलशन, अब्बू लगभग महीने भर के लिए ही तो हम से दूर जाएंगे। इतना परेशान मत हो।'' सिराज ने गुलशन को समझाने की कोशिश की।
''नहीं, मैं नहीं चाहती कि वे हज को जाएँ!'' गुलशन ने कुछ इस अंदाज से सिराज से कहा मानो वह अब्बू को हज पर जाने से रोक लेगा। सिराज जानता था कि उसके वश में वास्तव में कुछ नहीं था। पर गुलशन का तनाव कम करने के लिए उसे झूठी तसल्ली तो दे सकता था। उसने कहा, ''अभी अब्बू ने एक राय जाहिर की है। हज के लिए जाने में बहुत झमेले हैं। कौन जाने बाद में उनकी राय बदल जाए।''गुलशन को सिराज की बातें अच्छी लगीं। उसके चेहरे का फीकापन गायब होने लगा और शरीर पर उसके हाथों का स्पर्श भी बुरा नहीं लगा।इस घटना को दिन गुजरे, फिर हफ्ते, फिर महीने। शुरू में गुलशन कारी रशीद अहमद के हाव-भाव और चेहरे-मोहरे से जायजा लेती रही कि हज के उनके इरादे का क्या हुआ। पर उन्होंने इस बारे में फिर कभी कोई बात नहीं की तो उसे विश्वास-सा हो गया कि उन्होंने हज का अपना इरादा तर्क कर दिया है। पर एक दिन सुबह-सुबह जब अब्बू उसके घर खुद चले आए तो उसका माथा ठनका। वह खुद हर रोज नाश्ता बना कर, सास-ससुर और सिराज को खिला-पिलाकर थोड़ी देर के लिए अब्बू के घर चली जाया करती थी। और अब्बू का घर था भी कितनी दूर। अपने घर के सामने के घरों की कतार के पीछे जमीन का एक खुला छोटा-सा हिस्सा था। उस खुले-हिस्से से पश्चिम की तरफ घरों की जो क़तार थी उसमें उत्तर की तरफ का आखिरी घर। पर आज वहाँ उसके पहुंचने के पहले ही खुद अब्बू उसके यहाँ चले आए थे। क्या वजह हो सकती थी। उसके अन्दर की जिज्ञासा ने उसे बेचैनी से भर दिया। शिकन भरे माथे के साथ उसने सवाल किया, ''क्या बात है अब्बू, सब खैरियत तो? मुश्ताक और दुल्हन ठीक है ना?''''
हाँ, सब ठीक है। सोचा आज गुल्लू के यहाँ नाश्ता करूँ।'' रशीद अहमद मुस्कुराते हुए बोले।''अल्ला! अब्बू आज ही क्यों? हम चाहेंगे आप रोज ही यहाँ नाश्ता करें, खाना खाएँ।'' कहती हुई गुलशन ने बैठक में चले आए अजीज मियाँ को सम्बोधित किया, ''क्यों अब्बा?!''''हाँ, बिल्कुल! यह भी कोई पूछने की बात है!!'' अजीज मियां ने गुलशन का समर्थन किया। इस बीच सिराज भी वहाँ आ गया।गुलशन खाट पर बिछावन डालकर ऊपर चादर डालने लगी। ऐसा करते हुए उसके अन्दर सवाल-दर-सवाल पैदा होते रहे। नाश्ते की बात तो अब्बू ने यूं ही कह दी। मुश्ताक और दुल्हन की जब कोई बात नहीं तो....तो क्या अब्बू? उसे अपने दिमाग के अन्दर की कोई गांठ ढीली होती सी लगी।
''बात यह है बेटा कि कल हज कमीटी के दफ्तर से दरखास्त आ गई है। मैं दरखास्त भरकर एक-दो रोज में भेजूंगा। सोचा, तुम्हें बता दूँ।''गुलशन ने अपने हृदय पर एक आघात सा महसूस किया। तो अब्बू हज के इरादे पर न सिर्फ क़ायम हैं बल्कि उसकी तैयारी भी शुरू कर दी है। उसे घबराहट भरी बेचैनी महसूस होने लगी। कुछ देर वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी अपनी जगह खड़ी रही। फिर अचानक बोली, ''तो अब्बू आप अपनी ही जि+द पूरी करना चाहते हैं?''''देखो बेटा, हज की मेरी दिली ख्वाहिश है, मैं हज नहीं करूँगा तो मुझे सुकून नहीं मिलेगा। मैंने खुदा से बहुत पहले हज का वादा कर दिया था।.....'' रशीद अहमद गुलशन को समझाते-समझाते मानो अपने आप से बाते करने लगे।''
तो अब्बू आप हज की अपनी जिद पूरी कीजिए परे मैं आज से आपके न घर आऊंगी और न आप से बात करूंगी।'' गुलशन ने गहरे रोश से कहा।''गुलशन, तुम ऐसा जुल्म करोगी अपने अब्बू पर?''
रशीद अहमद दुखी स्वर में बोले पर गुलशन ने कोई जवाब नहीं दिया। वह अन्दर के कमरे में गई और बेटे मेराज को लाकर रशीद मियां की गोद में बिना कुछ बोले दे दिया। रशीद अहमद ने थोड़ी देर नाती को प्यार किया फिर उसे गुलशन को वापस दे दिया। जब रशीद अहमद वापस जाने लगे तो गुलशन ने उन्हें सलाम भी नहीं किया, आँखों में आँसू भरकर उन्हें जाते हुए देखती रही।गुलशन ने सच में रशीद के घर जाना और उनसे बातचीत करना बंद कर दिया। नासमझ गुलशन की जिद से रशीद अहमद दुखी तो थे पर खुदा से किये वादे को तोड़ देने का साहस उनमें नहीं था। समधी-समधन, दामाद, बेटे और बहू के माध्यम से उसे समझाने- मनाने की कोशिशें करके जब वे थक गये तो यह सोच कर दिल को तसल्ली दे ली कि उसका उनसे बातचीत बंद कर देना उसके उनसे बेइन्तहा प्यार के इजहार का ही एक तरीका था।पर एक दिन जब घर में प्रवेश करते हुए हज कमीटी की तरफ से अब्बू की दरखास्त की मंजूरी मिल जाने की खबर सिराज ने गुलशन को दी तो कुछ देर तो निर्विकार सी वह अपने काम में लगी रही फिर अचानक ही सिराज से बोली, ''सिराज, मैं अब्बू से मिलूंगी।''''ठीक है तो मिल आओ!''
सिराज ने जल्दी से कहा। उसे अपने अंदर अनकही सी खुशी महसूस हुई। जब से गुलशन ने अब्बू से मिलना-जुलना बंद कर रखा था, वह खुद बहुत पीड़ित-सा महसूस करता था। अब गुलशन के ऐसा कहने पर उसे लगा कि अब्बू से उसका मिलना-जुलना और बातचीत बंद कर देना शायद उन्हें हज का इरादा तर्क कर देने के लिए दबाव बनाने का उसका एक तरीका भर था पर अब जबकि अब्बू की दरखास्त की मंजूरी आ गई है तो वह हार मान चुकी है।''तुम भी साथ चलो, मैं अकेली नहीं जा पाऊंगी।''
गुलशन ने कहा।''ठीक है मैं भी साथ चलता हूँ।'' सिराज को लगा, इतने दिन अब्बू से मिलना-जुलना और बातचीत बंद रखने की जिद की वजह से गुलशन शर्मिन्दा है।रशीद अहमद उस वक्त घर की बैठक में ही थे जिस वक्त मुश्ताक ने अन्दर आकर गुलशन के आने की सूचना उन्हें दी। रशीद अहमद हर्शातिरेक में उठ खडे हुए और कमरे से बाहर निकल कर दरवाजे के सामने खड़े हो गए। उनके साथ गाँव के दो लोग और भी थे। वे भी उनका अनुसरण करते हुए बाहर चले आए। रशीद मियां ने देखा, सामने के मैदान के बीच की पगडंडी पर आगे-आगे सिराज और उसके पीछे मेराज को गोद में लिए गुलशन चले आ रहे थे। वे जब नजदीक आ गए तो सबसे पहले उन्होंने लगभग वर्श भर के मेराज को गुलशन से ले लिया और उसे चूमने लगे। गुलशन उनके पैर पकड़ते हुए बैठ गई, ''माफ़ कर दीजिए अब्बू!''
झुककर एक हाथ से उसे उठाते हुए रशीद अहमद बोले, ''नहीं'', मैं जानता हूँ, हज की मेरी जिद के बावजूद तुम मुझे माफ करने आई हो। मेरी गुल्लू का दिल कितना बड़ा है।''रशीद अहमद के सीने से लगकर गुलशन रो पड़ी। उनकी आँखों में पहले ही आँसू आ गए थे। पास खड़े सिराज, मुश्ताक और दूसरे लोगों की आँखें भी भीग गईं।गुलशन एक बार और रोई थी। जब वह अब्बू को कोलकाता के लिए विदा करने सिराज और मुश्ताक के साथ गया रेलवे स्टेशन गई थी। उसके बाद वह फिर कभी नहीं रोई। गया से नवादा और नवादा से अपने गाँव मुरूई लौटते हुए भी वह बिल्कुल नहीं रोई और न बकरीद के दूसरे दिन जब घबराहट से भरे हुए मुश्ताक ने अलसुबह आकर वह मन्हूस खबर सुनाई कि हज के दौरान मीना में भगदड़ में कुचल कर कई हज यात्रिायों के मरने की खबर है जिनमें भारतीय हज यात्री भी शामिल हैं। और गुलशन तब भी नहीं रोई जब अगले दिन सऊदी से हज कमीटी की तरफ से मदरसे में फोन से खबर आ गई कि मरने वालों में कारी रशीद अहमद भी थे और उन्हें वहीं दफना दिया गया है।
अगले दिन अलस्सुबह नींद टूटने पर सिराज ने देखा कि गुलशन मेराज को स्तनपान कराते हुए लगातार कुछ बड़बड़ाए जा रही है। पहले उसने समझा कि वह मेराज से लाड में बातें कर रही है पर मेराज जब दूध पीकर सो गया और वह तब भी उसी तरह बड़बड़ाती रही तो सिराज डर गया। उसके मन में एक आशंका रेंग आई। वह पूछ बैठा, ''यह क्या बड़बड़ा रही हो तुम गुलशन?'
'''मैं अब्बू के पास जाना चाहती हूँ!'' गुलशन ने कुछ अजीब सी नजरों से उसे घूरते हुए कहा। इससे पहले कि वह कुछ और बोलता गुलशन बाहर के दर की ओर निकलती हुई बोली, ''मैं अब्बू से मिलने जा रही हूँ।
''सिराज हड़बड़ा कर उठा और गुलशन का पीछा करते हुए बाहर आया तो देखा कि गली में बदहवास सी वह भाग रही है। वह भी उसके पीछे भागा। जब वह पकड़ में आई तो वह परेशान से स्वर में बोला, ''यह सब क्या कर रही हो गुलशन?''''मैं अब्बू के पास जा रही हूँ।'' फटी-फटी आँखों से सिराज को घूरते हुए उसने कहा।''अब्बू तो गुलशन अब.....'' कहते-कहते सिराज रूक गया फिर बात बदल कर बोला, ''गुलशन, चलो, घर चलो!''गुलशन ने कोई जवाब नहीं दिया। फटी आँखों से वह उसे घूरती रही। मैं तुम्हारा सिराज हूँ, सिराज की आँख में आँसू आ गए। वह रूंधे गले से बोला, ''घर चलो गुलशन, मेराज रो रहा होगा।
''मेराज का नाम सुनकर वह कुछ सोचने लगी और प्रकृतिस्थ होती सी लगी। तब हाथ पकड़कर सिराज उसे घर तक ले आया।गुलशन की झाड़-फूंक शुरू हुई। पहले गाँव में, फिर नवादा में फिर गया के खानकाहों में पर उसकी हालत बिगड़ती ही गई। तब कुछ लोगों ने इलाज की राय दी। उसे नवादा के जिस डॉक्टर से दिखाया गया उसने उसे पड़ोसी प्रान्त झारखण्ड की राजधानी रांची के एक प्रसिद्ध डॉक्टर के यहाँ रैफर कर दिया। सिराज और मुश्ताक ने उसे रांची ले जाने की जिम्मेदारी संभाली।लोगों के अजीब से शोर से बस में ऊँघ रहे सिराज और मुश्ताक जग पड़े और अपने बीच गुलशन को न पाकर अपने हृदय की धड़कनों को रूकती हुई महसूस किया। शोर बस के बाहर ज्यादा था। अन्दर कुछ यात्री बस के ड्राइवर, कंडक्टर और खलासी को भला बुरा कह रहे थे। मेराज सिराज की गोद में अब भी सो रहा था। वे दोनों कुछ याद करते हुए हड़बड़ा कर उठे। बस हजारीबाग बस स्टैण्ड के बाहर नेशनल हाईवे पर रूकी हुई थी। रांची में गुलशन को डॉक्टर से दिखाकर वे घर लौट रहे थे। रातभर जगते रहने के कारण वे नींद से बेहद भरे हुए थे और रांची से बस खुलने के समय से ही वे झपकियाँ लेने लगे थे।''इन झपकियों ने कहीं कोई अनर्थ न कर दिया हो।'' सिराज ने सोचा और बस से नीचे उतरा।
पीछे-पीछे मुश्ताक भी।नीचे दोनों ने पाया कि बस का कंडक्टर, खलासी और कुछ दूसरे लोग बस के किनारे जमीन पर पड़ी गुलशन को उठाने का प्रयास करते हुए कह रहे थे, ''अरे यह औरत है किसके साथ?''''हम लोगों के साथ।'' सिराज और मुश्ताक दोनों लगभग एक साथ घबराई हुई आवाज में बोलते हुए आगे बढ़े। गुलशन बेहोश थी और उसका चेहरा लहूलुहान था। नाक और बाएँ कान से भी खून रिस रहा था। कुछ लोगों ने बताया कि रूकी हुई बस से गुलशन अचानक नीचे उतर आई थी और ड्राइवर ने उसी समय गाड़ी आगे बढ़ा दी थी और बस के पिछले खुले दरवाजे से गुलशन टकरा गयी थी। लोगों ने उसे तुरन्त किसी डॉक्टर के पास ले जाने की राय दी। कुछ लोगों ने एक रिक्शा रूकवा कर गुलशन को उस पर सवार करने में मदद की और रिक्शे वाले को एक प्राइवेट नर्सिंग होम का पता बताते हुए उन्हें वहां ले जाने को कहा।हजारीबाग के उस प्राइवेट नर्सिंग होम में मरहम पट्टी के बाद गुलशन को दिनभर कई तरह के इंजेक्शन पड़ते रहे पर उसे होश नहीं आया। देर शाम को डॉक्टर ने कहा कि बेहतर होगा कि वे मरीज को रांची ले जाएं, उसकी स्थिति गंभीर है।
रात लगभग दस बजे एक रिक्शे पर गुलशन को लेकर सिराज और मुश्ताक बस स्टैण्ड पहुंचे। अंधेरे में बस स्टैण्ड के हाते के बाहर ही नेशनल हाईवे के किनारे एक बस खड़ी थी और उसका खलासी चिल्ला रहा था, ''राँची, राँची....राँची, राँची।''बहुत मुश्किल से बेहोश गुलशन को सिराज और मुश्ताक बस में चढ़ा पाए और ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर मुश्ताक उसे संभाल कर बैठ गया। सिराज मेराज को गोद में लेकर बगल में बैठा। थोड़ी देर में बस खुल गई और बस कंडक्टर भाड़ा लेने उनके पास आ पहुंचा। भाड़े के हिसाब बताते हुए उसने कहा, ''डेढ़ सौ रुपये।''''भाई साहब कुछ कम कर दीजिए। हम लोग मरीज को ले जा रहे हैं, ऊपर से इसके साथ आज यहां हादसा हो गया और यहाँ हमारा घर भी नहीं है।'' सिराज निवेदन कर रहा था।''तो हम क्या करें?!'' कंडक्टर असंपृक्तता से बोला।
''हम लोग बहुत परेशानी में हैं। पहले ही हमारे काफी पैसे खर्च हो गए हैं।''
सिराज गिड़गिड़ाने लगा था।''अच्छा सौ रुपये दे दो।'' कंडक्टर ने दया दिखाते हुए कहा। सिराज खड़ा होकर जेब से एक हाथ से पैसे निकालने लगा। दूसरे हाथ से उसने मेराज को थाम रखा। नन्हा मेराज जगा हुआ था। सुबह के हादसे के वक्त से नन्हा मेराज आश्चर्यजनक रूप से शांत था। बगल की सीट पर एक यात्री दुख और करूणा से गुलशन के सिर पर बंधी पट्टियों को देख रहा था। नन्हा मेराज उसे देखकर मुस्कुरा पड़ा। शायद वह उसे बताना चाहता था कि उसे पता है कि उसकी अम्मी उस सफर पर आगे बढ़ गई हैं जो उसे अपने अब्बू के पास ले जायेगा और वह गहरे सुकून में है।

1 comments:

गरिमा November 7, 2008 at 4:51 PM  

कहानी के साथ जो भाव पैदा हुए, उन्हे व्यक्त करना अत्यंत मुश्किल है.. लेखन शानदार है, लेखक को बधाई

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