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Tuesday, November 4, 2008

दलित साहित्य में दलित : एक विमर्श

डॉ० निरंजन कुमार
पिछले वर्षों में दलित, दलित चेतना, दलित आंदोलन व दलित साहित्य ने विचारकों, सामाजिक चिंतकों, साहित्यकारों एवं आलोचकों का ध्यान सर्वाधिक आकृष्ट किया है। इधर हिन्दी में भी दलित साहित्य एक स्थापित धारा बन चुकी है। दलित साहित्य आंदोलन के प्रमुख धारा बनने के बावजूद दलित और दलित चेतना पर बहस अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है, खासतौर से इस बात पर विवाद बना हुआ है कि दलित कौन है? दलित चेतना का स्वरूप क्या है? और दलित साहित्य को कैसे परिभाषित किया जाए। प्रस्तुत लेख में प्रथम प्रश्न के उत्तर देने का प्रयास किया गया है। अन्य दो के उत्तर भी इसी से जुड़े हैं।दलित शब्द १९वीं सदी के सुधारवादी आंदोलन (या नवजागरण) काल की उपज है।१
विवेकानंद, ऐनी बेसेंट, रानाडे आदि ने इस शब्द का अनेक बार प्रयोग किया है। अर्थात्‌ इस शब्द का प्रयोग सवा सौ साल से ज्यादा समय से हो रहा है और तभी से इस शब्द की अर्थ व्याप्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। इस प्रकार से दलित शब्द का वर्तमान रूप अर्थ आधुनिक है लेकिन यह भी सही है कि दलितपन या दूसरे शब्दों में कहें तो इस शब्द से जुड़ी भावना प्राचीन काल में ही उत्पन्न हो गयी थी। व्युत्पत्ति के आधार पर पहले इसके अर्थ को देखा जाए। दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के धातु दल्‌ से हुई है जिसका अर्थ है तोड़ना, कुचलना। संस्कृत शब्दकोशों में दलित शब्द के निम्न अर्थ किए गए हैं -दलित-दला गया, मर्दित, पीसा गया।२मानक हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोशों में दलित शब्द के लिए डिप्रेस्ड (क्मचमेमक) मिलता है, इसके अतिरिक्त डाउनट्रोडेन Down trodden भी मिलता है।३
हिन्दी शब्दकोशों में भी संस्कृत और अंग्रेजी के समान ही दलित' का अर्थ है - मसला हुआ, रौंदा हुआ, खंडित, विनष्ट किया हुआ।४इस प्रकार दलित शब्द के विभिन्न शब्दकोशों में विभिन्न अर्थ संदर्भ मिलते हैं लेकिन उनकी व्यंजना कमोबेश एक है। दलित वर्ग इसी दलित शब्द से ही सम्बद्ध है। उपरोक्त अर्थ संदर्भों से यह तो स्पष्ट हो ही जाती है कि समाज के उस वर्ग को, जिसे सबसे निम्न समझा जाता है, जिसका उच्च वर्गों के लोगों में दलन किया, दबाकर रखा, दलित वर्ग कहा गया। लेकिन यह दलित वर्ग की सामान्य या अभिधात्मक संकल्पना है। देखा जाए तो आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, सांविधानिक लिंगीय दृष्टिकोणों से दलित शब्द भिन्न-भिन्न आयाम ग्रहण करता है।आर्थिक दृष्टि से दलित एक वर्गीय शब्द है। भारत एक गरीब देश है। यहाँ की आधी से ज्यादा आबादी आर्थिक दृष्टि से दलित ही है।५ इस प्रकार यहाँ न केवल अछूत एवं शूद्र बल्कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि सभी जातियों के गरीब एवं अभावग्रस्त लोग दलित वर्ग में समाहित हो जाते हैं।धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखें तो यह स्पष्ट है कि हिन्दू समाज एक श्रेणीबद्ध समाज है जिसका आधार वर्ण व्यवस्था है। यह वर्ण व्यवस्था चार भागों में न होकर पाँच सोपानों में विभाजित है -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पंचम वर्ग। यह पंचम वर्ग उस शूद्र वर्ग से अलग है जो अस्पृश्यता अथवा छुआछूत से ग्रस्त नहीं है। पंचम वर्ग अतिशूद्र और अछूत अथवा अस्पृश्य भी कहलाता है।जैसा कि पहले कहा जा चुका है शूद्रों की स्थिति पंचम वर्ग से बेहतर थी और उन्हें कई सामाजिक-धार्मिक अधिकार भी मिले हुए थे। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम०एन० श्रीनिवास ने अपने संस्कृतीकरण की प्रक्रिया के अध्ययन में दिखाया है कि कैसे समाज की निम्न जातियाँ अपना आदिवासी कालक्रम में आर्थिक-रूप से मजबूत होकर जाति व्यवस्था में अपनी स्थिति उच्च कर सकी हैं।६ लेकिन अछूत और पंचम जातियाँ किसी भी तरीके से इस कार्य में सफल नहीं हो पाईं। जैसा कि ओवेन लिंच ने आगरा के जाटवों के अध्ययन से दिखाया। तमाम आर्थिक प्रगति और संख्या बल के बावजूद उनकी ऊर्ध्व गतिशीलता और उच्च सामाजिक प्रस्थिति को समाज ने अस्वीकार कर दिया।७ एफ०जी० बेली ने भी अपने उड़ीसा के एक गाँव की जाति संरचना के अध्ययन में इस बात की पुष्टि की है। आर्थिक प्रगति कर जाने पर उड़ीसा के एक गाँव बिसिपाड़ा के तथाकथित पिछड़ी/शूद्र जातियों को कालक्रम में उच्च स्थान प्राप्त हुआ जबकि समान आर्थिक प्रगति के बावजूद अछूत जातियों की सामाजिक प्रतिष्ठ जस की तस निम्न बनी रही।८स्पष्ट है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर अवस्थित समूह, जिसके विकास एवं प्रगति को सदा अवरुद्ध किया गया, उन्हें दबाकर रखा गया, वह शूद्र जातियाँ नहीं वरन्‌ अतिशूद्र अथवा पंचम जातियां थीं जो अछूत थी अस्पृश्य भी थीं और विभिन्न निर्योग्यताओं से ग्रस्त भी।सामाजिक दृष्टि से दलित शब्द एक और अर्थ ध्वनित करता है। इस वर्ग में न केवल अछूत जातियाँ हैं बल्कि समाज की मुख्यधारा से कटी जनजातियाँ भी शामिल हैं।
ये जनजातियाँ अथवा आदिवासी राष्ट्र के विकास से अलग-थलग पड़ गए हैं बल्कि सच्चाई यह है कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से शोषित और वंचित हैं। स्थिति इतनी विकट है कि अनेक जनजातियाँ तो विलुप्त होने की अवस्था में हैं। एन्थ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के पीपुल ऑफ इण्डिया प्रोजेक्ट की रिपोर्ट में अनेक जनजातियों को लुप्त होने की खतरनाक अवस्था में दिखाया गया है। कुछ के नाम गिनाये जा सकते हैं - जारवा, ओन्गेज, बिरहोर, चेन्चु, माल पहाड़िया आदि।लिंगीय दृष्टि से भी दलित शब्द की व्याख्या की गयी है। समाज के आधे हिस्से स्त्रियाँ, जिसे सिमन दी बुउआ सेकंड सेक्स कहती है, अपने आप में एक तरह से दलित ही है। राजेन्द्र यादव इस दृष्टिकोण के सबसे बड़े प्रवक्ता है। वे जोर देकर कहते हैं कि भारतीय समाज में शूद्रों और स्त्रियों की स्थिति कमोबेश समा रही है। विभिन्न आर्थिक, धार्मिक-सांस्कृतिक और सामाजिक निर्योग्यताओं से दोनों ही समान रूप से ग्रस्त रहे हैं, दोनों ही वंचित, शोषित, पीड़ित तथा समाज के अत्याचार के शिकार रहे हैं।
एक अन्य स्वर राजनीति का है। बहुजन समाज की राजनीति के दौरान उभरे इस विचार में अस्पृश्यों, पिछड़ों, मुसलमानों आदि को एक वर्ग में शामिल करते हुए उन्हें समान रूप से दलित मानकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश की गयी। पर इन समुदायों की समस्याएँ अलग-अलग हैं और इनके बीच कई अन्तर्विरोध भी हैं।उपरोक्त विभिन्न दृष्टिकोण का थोड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषण कर लिया जाए।दलित शब्द की वर्गवादी व्याख्या मार्क्सवादी चिंतकों ने की। इन विद्वानों में राजकिशोर के अतिरिक्त मराठी विद्वान नामदेव ढसाल, म०न० वान खेड़े, नारायण सुर्वे आदि दलित का वर्गीय दृष्टि से देखते हैं।९
यहाँ दलित शब्द के अन्तर्गत आर्थिक रूप से निम्न सभी वर्णों के लोगों को समाहित कर लिया जाता है। लेकिन यहाँ स्पष्ट कर देना उचित होगा कि आर्थिक रूप से सभी वंचित लोगों की सामाजिक प्रस्थिति समान नहीं होती। हमारे समाज में एक गरीब ब्राह्मण की सामाजिक प्रस्थिति वह नहीं होगी जो कि एक गरीब अछूत जाति के व्यक्ति की। बल्कि परंपरागत रूप से तो कई बार धन, शक्ति, यश एवं गुण से हीन ब्राह्मण भी धनवान, शक्तिशाली, गुणवान अछूत से सामाजिक स्तर पर उच्च होता है। तुलसीदास की यह पंक्तियों द्रष्टव्य हैं -पूजिय विप्रासील गुन हीनासूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि वर्गीय विभाजन एक दम निरर्थक है। बल्कि बदलते हुए समय में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था और पूंजीवाद के राक्षस ने अपने पाँव चारों तरफ पसारना शुरू कर दिया है उसमें इस दृष्टिकोण की उपयोगिता और सार्थकता निश्चित रूप से बढ़ जाती है जैसा कि शरण कुमार लिंबाले लिखते हैं - व्यापक सामाजिक और राजनैतिक ऐक्य की भूमिका को ध्यान रखते हुए वान खेड़े, ढसालकृत परिभाषा समाज जागृति संगठन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज भारतीय समाज और राजनैतिक जीवन में जिस उच्च स्वर से जिस बहुजनवाद की भाषा बोली जा रही है, उसका निनाद वानखेड़े, ढसाल की परिभाषा में सुनने को मिलता है। दलित साहित्य को आंदोलन माना जाए तो वानखेड़े, ढसाल की भूमिका व्यापक हित और विधायक दृष्टि से उचित लगती है।१०राजेन्द्र यादव की मान्यता, कि स्त्री को भी दलित वर्ग के अन्तर्गत मानना चाहिए, को भी परख लिया जाए। यह तो सही है कि जैविक दृष्टि से प्रकृति ने स्त्री-स्त्री में भेद नहीं किया है स्त्री चाहे द्विज हो अथवा अछूत, वह शारीरिक रूप से समान है, पुरुष वर्ग के शारीरिक दाहन-शोषण की समान भुक्तभोगी है। लेकिन सवाल यहाँ यह भी है कि स्त्री क्या एक जैविक इकाई मात्र है? जैविक सत्ता के अतिरिक्त स्त्री की एक सामाजिक सत्ता भी है।
इसीलिए पुरुष वर्ग के अधीन होने के बावजूद एक द्विज स्त्री अछूत स्त्री से अपने को अलग समझती है। द्विज स्त्री वर्ण गर्व से आप्लावित होती है वहीं अछूत स्त्री एक ग्लानि से पीड़ित। इस प्रकार दलित स्त्री को दोहरा अभिशाप झेलना पड़ता है। वह वर्णवादी समाज और पुरुष वर्ग दोनों के अत्याचारों का शिकार होती है। इसीलिए दलित स्त्री को दलित में दलित की संज्ञा भी दी जाती है।
यहाँ निष्कर्ष यही निकलता है कि सभी स्त्रिायों को एक ही दलित श्रेणी में रखा जाना सही नहीं होगा। राजनैतिक दृष्टिकोण के अन्तर्विरोधों को पहले ही देखा जा चुका है।जनजातियों अथवा आदिवासियों को दलित समुदाय के अन्तर्गत शामिल करना भी उचित नहीं होगा। जनजातीय अथवा आदिवासी समाजों की अलग परेशानियाँ हैं, यद्यपि वे भी कम भयानक नहीं हैं लेकिन मुख्यधारा से वे परंपरगत रूप से कह रहे हैं और वर्णव्यवस्था से एक तरह से वे बाहर ही हैं। मुख्यधारों में शामिल होने पर भी उन्हें अछूतेपन की समस्या से वैसा ग्रस्त नहीं होना पड़ा है जैसा कि अछूत जातियों को। एम०एन० श्रीनिवास ने अपने अध्यापन में इस बात को दिखाया है कि अनेक जनजातियों ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को अपनाकर वर्णव्यवस्था में अपेक्षाकृत उच्च गतिशीलता कर उच्च प्रस्थिति का दावा किया और समाज ने उन्हें मान्यता भी दी। उदाहरण के लिए गोंड जनजाति का इस सन्दर्भ में नाम लिया जा सकता है। (जिन्होंने संस्कृतीकरण की प्रक्रिया द्वारा कालक्रम में क्षत्रिय प्रस्थिति का दावा किया और उन्हें सामाजिक स्वीकृति भी मिली।) यह अनायास नहीं है कि भारत सरकार के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग, जो अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण का कार्य समग्र रूप से देखती थी को दो भागों में बांट दिया गया है।
अब अनुसूचित जाति आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग दो अलग-अलग निकाय बना दिए गए हैं।समग्र रूप से देखें तो आज की परिस्थितियों में दलित शब्द एक रूढ़ अर्थ ग्रहण कर चुका है। वर्तमान में दलित शब्द पूर्व की अछूत या पंचम जातियों के पयार्य के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है जो विभिन्न सामाजिक निर्योग्यताओं से ग्रस्त रही हैं।
दलित साहित्य के अधिकांश साहित्यकार व्यावहारिक रूप से दलित शब्द का यही अर्थ ग्रहण करते हैं। हालांकि सैद्धांतिक रूप से कई दलित चिंतकों-साहित्यकारों ने दलित शब्द को अपेक्षाकृत एक व्यापक अर्थ में ग्रहण करने की वकालत की है, आदिवासियों आदि समुदाय को भी शामिल करने पर जोर दिया है लेकिन इस व्यापक दृष्टिकोण की सीमाओं को उपर्युक्त विवेचन में दिखलाया जा चुका है।यहीं पर इस बात पर भी विचार कर लिया जाए कि प्राचीनकाल के अन्त्यज अथवा कल के हरिजन आज स्वयं को दलित कहना अधिक पसंद क्यों करते हैं।
दरअसल दलित शब्द जहाँ व्यक्ति को अपनी अस्मिता, स्वाभिमान और अपने इतिहास पर दृष्टिपात करने को बाध्य करता है, वहीं अवगति, वर्तमान स्थिति और तिरस्कृत जीवन के विषय में सोचने के लिए भी विवश करता है। ...दलित शब्द आक्रोश, चीख, वेदना, पीड़ा, चुभन, घुटन और छटपटाहट का प्रतीक है। ...दलित शब्द आज प्रेरणा और विद्रोह का पर्यायवाची भी है।११
स्पष्ट है कि दलित शब्द एक ओर जहाँ इस शोषित-पीड़ित समुदाय की वेदना, पीड़ा और छटपटाहट को अभिव्यक्त करता है, वहीं दूसरी तरफ यह विद्रोह और मुक्ति की प्रेरणा भी देता है। एक नये समाज के निर्माण की आकांक्षा, जो समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व पर आधारित हो, कुछ ऐसी ही अभिव्यंजना दलित शब्द से ध्वनित होती है और यही दलित चेतना और दलित साहित्य की पृष्ठभूमि में भी दृष्टिगोचर होता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
१. डॉ० नरेन्द्र सिंह - दलितों के रूपान्तर की प्रक्रिया, पृ० ७
२. (सं०) शिवराम वामन आप्टे - संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९८१
३. (सं०) महेन्द्र चतुर्वेदी एवं भोलानाथ तिवारी - व्यावहारिक हिन्दी-अंग्रेजी कोश
४. (सं०) रामचन्द्र वर्मा - संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर, पृ० ४६८
५. राजकिशोर - अगर मैं दलित होता ,धर्मयुग, १९९४, पृ० २२
६. एम०एन० श्रीनिवास - आधुनिक भारत में जातिवाद तथा अन्य निबन्ध, दिल्ली, १९९२
७. Lynch, owen M. - The politics of Untouchability social Mobility and social change in a city of India, columbia university press New York. 1969.8- F.G. Bailey - Tribe, caste and Notion, oxford University Press, Bombay 1960
९. रजत रानी मीनू - नवें दशक की दलित कविता, दलित साहित्य प्रकाशन, नयी दिल्ली, १९९६, पृ० २-३
१०. शरण कुमार लिंबाले - दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्रा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, २०००, पृ० ७६-७७
११. सोहनपाल सुमनाक्षर - विश्व धरातल पर दलित साहित्य, भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली, १९९९, पृ० ९-११

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Monday, November 3, 2008

कबीर की प्रासंगिकता

डॉ० शेर सिंह बिष्ट
इस संसार में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए जिन-जिन महापुरुषों ने भी अपने जीवन काल में संघर्ष किया और अपने लक्ष्य में सफल हुए, उनकी प्रासंगिकता प्रत्येक युग में बनी रहती है और तब तक बनी रहेगी जब तक मानव जाति का अस्तित्व रहेगा। भगवान गौतम बुद्ध, पैगम्बर मोहम्मद साहब, प्रभु ईसा मसीह, गुरु नानक देव आदि तमाम ऐसे संत-महात्मा हुए हैं, जिनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। उन्हीं की श्रेणी में भक्त कवि संत कबीरदास का नाम भी लिया जा सकता है। आधुनिक युग में ऐसे ही महापुरुषों में महात्मा गाँधी और मदर टेरेसा का नाम भी जुड़ गया है। ऐसे महापुरुषों का आविर्भाव कभी कभार ही हुआ करता है।
वर्तमान युग में कबीरदास की प्रासंगिकता क्यों और कैसे है, यह जानने के लिए जरूरी है कि हम उनके जीवन-दर्शन एवं विचारधारा की उनकी रचनाओं के आधार पर सम्यक्‌ विवेचना करें।सभ्य मानव जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं - १. भौतिक जीवन और २. आध्यात्मिक जीवन। भौतिक जीवन की मूलभूत एवं प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं- रोटी, कपड़ा और मकान। इनकी आपूर्ति से मनुष्य जीवन का अस्तित्व तो बना रह सकता है, परन्तु वह जीवन सुखी हो, आवश्यक नहीं है। सुख भी व्यक्ति सापेक्ष होता है। किसी को महलों में भी सुख नसीब नहीं होता और कोई झोपड़ी में भी हरि गुन गाकर मस्त रहता है। जीवन यापन करने के लिए कर्म के साथ-साथ ज्ञान की भी आवश्यकता होती है। ज्ञान भी दो तरह का होता है-१. शास्त्रीय ज्ञान और २. व्यावहारिक ज्ञान। शास्त्रीय ज्ञान पुस्तकों के अध्ययन या आचार्यों के प्रवचनों से प्राप्त होता है तो व्यावहारिक ज्ञान जीवनगत अनुभवों से। जीवन को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने में सतगुरु की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है ताकि व्यक्ति भटकाव से बच सके।प्रकृति का नियम है कि कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता, चाहे उसका संबंध भौतिक प्रकृति से हो या मानव प्रकृति से। सृष्टिरूप कार्य के पीछे, कारणरूप स्रष्टा भी होगा, इस बात को दुनिया के लगभग सभी दार्शनिक, धार्मिक, यहाँ तक कि अधिकांश वैज्ञानिक भी मानते आये हैं, नाम-भेद हो सकता है। उस स्रष्टा को ब्रह्म, ईश्वर, खुदा, अल्लाह, गॉड, वाहे गुरु, रब, सच्चे बादशाह, परा शक्ति आदि अनेक नामों से अभिहित किया जाता रहा है।
स्रष्टा की सृष्टि में जीवन एवं जगत की सत्ता असंदिग्ध है। जीव दो तरह के होते हैं-१. मानव एवं २. मानवेतर प्राणी। जगत भी दो तरह का होता है-१. प्रकृति जगत और २. मानव निर्मित भावनागत जगत, जिसे प्रायः संसार भी कहा जाता है। स्रष्ट का श्रद्धावश परमपिता परमेश्वर कहा जाता है तो जीवन मात्र को उसकी संतान। संतान के प्रति पिता की समदृष्टि होती है, कोई ऊँच-नीच नहीं होता। संतान में पिता गुण-सूत्र (डी.एन.ए.) रूप में विद्यमान रहता है, इसे धर्माचार्य ही नहीं, विज्ञानी भी मानते हैं। प्रकारान्तर से कह सकते हैं कि जीव मात्रा में ईश्वर या ब्रह्म अंश रूप में विद्यमान होता है; अतः जीव और ब्रह्म में अंशांशीभाव संबंध रहता है। इस दृष्टि से जीव हत्या, ब्रह्म हत्या के समान है। मानव-निर्मित भावनागत संसार तमाम तरह के नाते-रिश्तों में बँधा हुआ है, और यही मनुष्य के दुःख का कारण है। बड़ा-छोटा, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि सब मानव-निर्मित है। मनुष्य जीवन नाशवान है, अतः उसके द्वारा निर्मित संसार भी अस्थाई अथवा मिथ्या है। सत्य स्थाई होता है, मिथ्या अस्थाई। मिथ्या संबंधों मिथ्या प्रतीति होती है और मिथ्या प्रतीत अंततोगत्वा दुःख का कारण बनती है। इस दुःख से संसार को उबारने के लिए ही समय-समय पर संत-महात्माओं अथवा पीर-फकीरों का मनुष्य रूप में आविर्भाव होता है। ऐसे ही संत का नाम है-कबीर (श्रेष्ठ)। उदाहरण - हिन्दू तुरक के बीच में, मेरा नाम कबीर।/जीव मुक्तावन कारनै, अविगति धरा शरीर॥१
वे ऐसे सतगुरु हैं जो ईश्वर भक्तों का न केवल उचित मार्ग-दर्शन करते हैं, वरन्‌ राहत भटके लोगों को सही राह पर लाने के लिए डाँट-फटकार भी लगाते हैं। अज्ञान में डूबे लोगों का अज्ञान दूर करने के लिए वे एक तर्कशास्त्री की भाँति ऐसी-ऐसी दलीलें पेश करते हैं कि जिससे उनका अज्ञानजनित भ्रम दूर हो सके। इसलिए वे आडम्बरों पर करारी चोट करते हैं, फिर चाहे वह पंडित, काजी, मुल्ला, मौलवी हो या साधु वेशधारी जोगी, यती अथवा संन्यासी। वे सच बात कहने से कभी नहीं चूकते, चाहे वह सच प्रिय हो या अप्रिय। वे इस मत के मानने वाले हैं कि -सत्यं ब्रूयात्‌ प्रियं बू्रयात्‌, न ब्रूयात्‌ सत्यमप्रियं। इसलिए वे अक्खड़ हैं, समझौतावादी, अवसरवादी या व्यवहार कुशलता कतई नहीं। भस्मलेपी, गुफावासी, जटाधारियों से भी दो टूक शब्दों में सच कहने की हिम्मत कबीर ही कर सकते हैं कि बाहरी दिखावा बंद करो, विकारों को त्यागकर मन पर विजय पाओ, जंगल या गुफा में वास करने के बजाय अपने भीतर स्थित प्रभु राम में रम जाओ - बनह बसे का कीजिये, जे मन नहीं तजै बिकार।/घर बन तत समि जिन किया, ते बिरला संसार॥/का जटा भसम लेपन कियै, कहा गुफा में बास॥/मन जीत्याँ जग जीतिये, जौ विषया रहै उदास॥२लेकिन घर और वन को समान बना लेने वाले तत्त्वेत्ता इस संसार में विरले ही हैं। जिसने विषयों के प्रति उदास रहकर मन जीत लिया तो समझो उसने जग जीत लिया।कबीर कुछ मामलों में बड़े ही निर्मम हैं।
वे किसी की परवाह नहीं करते। सचमुच वे ऐसे आत्माराम प्रतीत होते हैं, जिसके भीतर किसी तरह का भय या संशय नहीं रह गया है। जहाँ भी उन्हें किसी तरह का झूठ, दिखावा या बनावटीपन दृष्टिगत होता है, अपने अक्षय तरकश से सत्य के वाण-प्रहार करना प्रारम्भ कर देते हैं। प्रतिपक्षी को अपनी सफाई देने का अवसर भी प्रदान नहीं करते। वे इस अंदाज में बात करने लगते हैं कि जैसे इस संसार में उनसे बढ़कर कोई दूसरा प्रभु भक्त या आत्मज्ञानी है ही नहीं। उन्हीं की भाषा में उन्हीं पर धावा बोल देते हैं। सहजिया सम्प्रदाय के लोगों को लक्ष्य करके कहते हैं कि जो लोग सहज-सहज की बात करते हैं, उनमें किसी को सहज की पहचान तक नहीं है। सहज साधक वही है जिसने सहज की विषयों को छोड़ दिया है और जिस सहज साधना से प्रभु की प्राप्ति होती है, उसे ही सहज करना चाहिए। प्रभु-प्राप्ति के लिए किसी तरह की कृच्छ-साधना की आवश्यकता नहीं है - सहज सहज सबकौ कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।/जिन्ह सहजै हरिजी मिलैं, सहज कहीजै सोइ॥३प्रभु-भक्ति एकान्तिक साधना है, उसके लिए दिखावा या हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रभु का स्मरण मन ही मन किया जा सकता है ताकि होंठ तक न हिलें। उसके लिए भगवा वस्त्रा धारण करना, आसन लगाकर मंदिर में बैठना, पत्थर पूजना, कान फाड़ना, दाढ़ी-बाल बढ़ाना या मुड़ाना, जंगल में धूनी रमाकर काम-वासना को जलाना या गीता-पाठ करना सब व्यर्थ है। इसीलिए कबीर ने दाढ़ी-बाल बढ़ाने वालों को बकरा, काम वासना जलाने वाले को हिजड़ा और गीता बाँचने वालों को लबार कहकर सम्बोधित किया है - मन ना रँगाये जोगी कपड़ा।/आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रह्म-छाड़ि पूजन लागे पथरा॥/ कनवा फड़य जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा॥/जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होय गैले हिजरा॥/मथवा मुँड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँच के होये गैले लबरा॥/कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा॥४
कबीर संसार के लोगों को समझाते-समझाते थक गए, लेकिन लोग हैं कि गाय की पूँछ पकड़कर भवसागर पार करने के भ्रम में पड़े हुए हैं, या फिर काशी में शरीर त्यागने को मुक्ति-प्राप्ति का द्वार मान बैठे है। यदि काशी में मरकर सभी मुक्त हो जाते तो फिर प्रभु की कृपा की क्या आवश्यकता थी? कबीर के अनुसार जिस प्रकार जल में प्रविष्ट जल पुनः जल से पृथक्‌ नहीं हो सकता, उसी प्रकार शरीर त्यागने पर परमात्मा में प्रविष्ट आत्मा पुनर्जन्म के रूप में पृथक्‌ नहीं हो सकता। अतः कोई पुनर्जन्म के भ्रम में न पडे। जिसके हृदय में राम का निवास है उसके लिए काशी और ऊसर मगहर (मगध गृह) दोनों बराबर हैं - लोका मति के भोरा रे।/जो कासी तन तजै कबीरा तो रामहि कहा निहोरा।/.../ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, यूँ ढुरि मिलै जुलाहा॥/राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा॥/.../कहै कबीर सुनहु रे संतो भ्रमि परे जिनि कोई।/जस कासी तस मगहर ऊसर, हिरदैं राम सति होई॥५मुक्ति प्राप्ति का एक मात्र उपाय है - प्रभु का सान्निध्य। प्रभु का सान्निध्य बाह्य साधनों - जप, माला, छापा-तिलक, तप, व्रत, उपवासादि से नहीं हो सकता। असली उपाय है मन को सर्वतोभावेन प्रभु के चरणों में लगाना - माला फेरत जुग गया, गया पाया न मन का फेर।/कर का मन का छाड़ि कै मन का मनिका फेर॥६माला हाथ में फिरती है, जीभ मुँह के भीतर और मन चारों दिशाओं में फिरता रहता है। ऐसे में नामोच्चारण मात्र से किया गया हरि-स्मरण भावहीन एवं दिखावा मात्र है, जिससे प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः मनसा-वाचा-कर्मणा प्रभु के चरणों में समर्पित होने की आवश्यकता है - माला तौ कर में फिरै, जीव फिरै मुख माहि।/मनुवा तौ चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहि॥७
इससे ऐसा लगता है कि, मानों माला ही, माला फिराने वालों पर व्यंग्य कर रही हो कि अपना मन तो विषयों से हटाकर प्रभु के चरणों में लगा नहीं पा रहे हो, मुझे काहे को फिरा रहे हो - कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।/मन न फिरावै आपणों, कहा फिरावै मोहि।८
इसी तरह कुछ लोग (जैसे बौद्ध भिक्षु) सिर मुड़ाकर ईश्वर-भक्त होने का ढोंग रचते हैं। यदि सिर मुड़ा कर प्रभु मिलते होते तो सभी सिर मुड़ा लेते। बार-बार (ऊन प्राप्ति के लिए) शरीर मुड़ाये जाने पर भेड़ वैकुण्ठ नहीं चली जाती - मूँड़ मुड़ाये हरि मिलै, सब कोई लेहु मुँड़ाय।/बार-बार के मूँड़ने, भेड़, वैकुण्ठ न जाये॥९जिस तरह से कबीर बाह्माचारों के विरोधी हैं, उसी तरह मंदिर-मस्जिद और मूर्ति-पूजा के भी विरोधी हैं। चूँकि वे निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं इसलिए उनके लिए ये सभी बाह्याचार निरर्थक हैं। परन्तु कबीर विरोध के लिए, किसी चीज का विरोध नहीं करते। उनका विरोध सकारण होता है। उनके तर्क अकाट्य होते हैं। वे कहते हैं कि पत्थर पूजने से यदि प्रभु मिलते तो मैं उस पहाड़ को ही पूजता, जहाँ से मूर्ति का पत्थर निकाला गया था। उस पत्थर की मूर्ति से तो यह चक्की अच्छी, जिसमें सारा संसार पीस खा रहा है - पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजू पहार।/ताते यह चाकी भली, पीसि खाय संसार॥१०
दरअसल पत्थर का जगदीश बनाकर, मूर्तिपूजा को लोगों ने कमाई का धंधा बना लिया है। यह प्रस्तर प्रतिमा शत प्रतिशत खोटे सिक्के के समान है जिसे खरीद तो लिया है पर वह बोलता नहीं है - मूरित धरि धंधा रचा, पाहन का जगदीश।/मोल लिया बोलै नहीं, खोटा विश्वाबीस॥११पत्थर-पानी पूजने से तो बेहतर होता, किसी साधु-संत की सेवा की जाती, जो प्रभु-प्राप्ति का मार्ग बताता। कबीर मंदिर या मूर्तिपूजा का ही विरोध नहीं करते, वरन्‌ मस्जिद और नमाज+ अदा करने को भी निरर्थक मानते हैं - काँकर पाथर जोरि कै मसजिद लई चुनाय।/ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥१२कबीर की दृष्टि में दिन में पाँच बार नमाज पढ़ना और बंदगी (प्रार्थना) करना वगैरह सब झूठ हैं। काजी सत्य की हत्या कर झूठ पढ़ता है और प्रभु-भक्ति का काम भी बिगाड़ता है - यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज।/साचै मोरे झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज॥१३
कबीरदास को बाह्याचारों का विरोध करने की प्रेरणा एवं ताकत अपने पूर्ववर्ती हठयोगियों से मिली। लेकिन योगियों से पूर्व भी सहजयानी सिद्धों ने भिन्न-भिन्न मत के बाह्याचारों का खण्डन किया है। इस संबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि-कबीरदास ने बाह्याचारमूलक धर्म की जो आलोचना की है उसकी एक सुदीर्घ परम्परा थी। इसी परम्परा से उन्होंने अपने विचार स्थिर किये थे।१४ आगे चलकर इसमें हिन्दू धर्म के बाह्याचारों के साथ मुसलमानी धर्म के बाह्याचार भी जुड़ गए जिसका कबीर ने जोरदार खण्डन किया है तथा भक्ति को प्रधानता दी है।
कबीर बड़े आश्चर्य भरे स्वर से पूछते हैं कि जो लोग स्वयं को धर्माचार्य मानते हैं, क्या वे यह तक नहीं जानते कि ईश्वर अंतर्यामी और सर्वव्यापी है। कोई भी वस्तु या जगह ऐसी नहीं है जो उसकी उपस्थिति या दृष्टि से ओझल हो। चींटी के चलने की आवाज भी जिसे सुनाई देती हो, उसे बाँग देने या चिल्ला चिल्लाकर पुकारने की क्या आवश्यकता है? छापा-तिलक लगाने, जटा बढ़ाने या माला जपने से क्या वह मिल सकता है? जो एक-दूसरे के प्रति प्रेम के बजाय घृणा का भाव रखता हो, उसे प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती - न जानै साहब कैसा है।/मुल्ला होकर बाँग जो देवे, क्या तेरा साहब बहरा है?/कीड़ी के पग नेउर बाजे, सो भी साहब सुनता है।/माला फेरी तिलक लगाया, लंबा जटा बढ़ाता है।/अंतर तेरे कुफर-कटारी, यों नहिं साहब मिलता है।१५
कबीर ईश्वर-प्राप्ति के लिए सभी धर्मों के बाह्याचारों को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए अंतःसाधना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कबीर के इस अस्वीकार की ताकत को विश्लेषित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - सब बाहरी धर्मचारों को स्वीकार करने का अपार साहस लेकर कबीरदास साधना के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए।....किसी बड़े लक्ष्य के लिए बाधाओं को स्वीकार करना सचमुच साहस का काम है। बिना उद्देश्य का विद्रोह विनाशक है, पर साधु उद्देश्य से प्रणोदित विद्रोह शूर का धर्म है। उन्होंने अटल विश्वास के साथ अपने प्रेम मार्ग का प्रतिपादन किया। रूढ़ियों और कुसंस्कारों की विशाल वाहिनी से वह आजीवन जूझते रहे, प्रलोभन और आघात, काम और क्रोध भी उनके मार्ग में जरूर खड़े हुए होंगे; उन्होंने असीम साहस के साथ जीता। ज्ञान की तलवार उनका एकमात्रा साधन था, इस अद्भुत शमशीर को उन्होंने क्षणभर के लिये भी रूकने नहीं दिया। वह निरन्तर इकसार बजती रही, पर शील के स्नेह को भी उन्होंने नहीं छोड़ा - यही उनका कवच था। इन कुसंस्कारों, रूढ़ियों और बाह्याचारों के जंजालों को उन्होंने बेदर्दी के साथ काटा। वे सिर हथेली पर लेकर ही अपने भाग्य का सामना करने निकले थे.... वे सच्चे शूर की भाँति जूझते ही रहे।१६
वर्तमान युग विज्ञान का युग है, तर्क प्रधान ज्ञान का युग है। मध्यकाल में जब पूरा देश बाह्याडम्बरों के अंधकार में डूबा हुआ था, ऐसे में कबीर ने चीजों को तर्क की कसौटी पर देखा-परखा और लोगों में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का भरसक प्रयास किया। वे ऐसे अंधकारमय युग में सच्चे अर्थों में प्रगतिशील विचारक थे। हृदय और मस्तिष्क का ऐसा मणि-कंचन योग कबीर में ही देखने को मिलता है, जो एक ओर प्रेम-भक्ति के रस-सागर में डुबकी लगा रहे थे तो दूसरी ओर समाज में वैज्ञानिक चेतना विकसित कर रहे थे।
कबीर के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मावलंबी भ्रम में पड़े हुए हैं और झूठ का सहारा लेकर ईश्वर को पाना चाहते हैं। हिन्दू राम कह-कहकर मर गए और मुसलमान खुदा परन्तु जो इन दोनों से भिन्न राह पर चला वही जीवित रहा अर्थात्‌ कबीर का राम इन सबसे भिन्न है। कबीर स्वर्ग-नरक के चक्कर में नहीं पड़े, इसीलिए प्रभु-दर्शन कर पाए - हिन्दू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाई।/कहै कबीर सो जीवता, दुइ मैं कदे न जाइ॥१७
कबीर संसार के लोगों के पागलपन को देखकर हैरान हैं। हिन्दू एवं मुस्लिम धर्माचार्यों द्वारा फैलाये गए भ्रमजाल की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कबीर भी उन्हें उखाड़ फेंकने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। कबीर जानते हैं कि यदि वे लोगों के सामने सच बात कहेंगे तो उनके धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुँचेगी और जनता उनके विरूद्ध हो जाएगी, क्योंकि कपोल-कल्पित धार्मिक अंधविश्वास उनके संस्कार बन चुके हैं। हिन्दू राम को अपना भगवान कहते हैं और मुसलमान रहीम को अपना खुदा मानते हैं। इसी बात को लेकर आपस में लड़ मरते हैं। जबकि वे ये नहीं जानते कि दोनों एक ही हैं। कबीर की दृष्टि में ईश्वर या खुदा को प्राप्त करने के लिए अपनाए जाने वाले तमाम धर्माचार-मूर्तिपूजा, नमाज पढ़ना वगैरह सब व्यर्थ हैं। उनका पुस्तकीय ज्ञान थोथा है क्योंकि वे प्रभु के तात्विक ज्ञान से अनभिज्ञ हैं और वह ज्ञान सतगुरु द्वारा प्राप्त हो सकता है। कोई भला माने या बुरा, सच को सच कहने की ताकत यदि किसी में थी तो वह कबीर में थी और वे अपनी बात कहने से नहीं चूकते थे इसीलिए वे साधू को संबोधित करते हुए कहते हैं - साधो, देखो जग बैराना।/ साँची कहौ तो मारन, घावै झूँठे जग पतियाना।/हिन्दू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना।/आपस मैं दोऊ लड़े मरतु हैं मरम कोई नहिं जाना।/बहुत मिले मोहिं नेमी धर्मी प्रात करैं असनाना।/आतम छोड़ि पषानै पूजै तिनका थोथा ज्ञाना॥१८
अतः राम-रहीम, केशव-करीम सब एक ही हैं। इसी तरह काबा-काशी भी एक ही हैं। जिस प्रकार गेंहू के आटे का मोटा चूर्ण ही मैदा बन जाता है, वैसे ही काबा ही काशी हो गया और राम ही रहीम हो गया। इनमें कोई तात्विक भेद नहीं है - काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।/मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥१९
लेकिन वेद और कुरान इनमें भेद उत्पन्न करते हैं। जिस तरह भगवान का कोई सम्प्रदाय नहीं है, उसी तरह हिन्दू-मुसलमान का भेद भी नकली है। भ्रम फैलाने वाले द्वैत की बात करते हैं। इसीलिए कबीर कहते हैं-अरे भौंदू इंसान! सच्चाई को समझा करो। राम-रहीम एक ही है, न वह हिन्दू और न मुसलमान - अरे भाई दोई कहा सो मोहि बतायौ,/बिचिही भरम का भेद लगावौ॥/.../कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहार तुरक न हिन्दू।२०
कबीर की प्रखर प्रतिभा एवं उनके मानवतावादी दृष्टिकोण के आधुनिक आलोचक भी कायम रहे हैं, जिसकी पुष्टि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस कथन से होती है - उपासना के ब्रह्मस्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्मकाण्ड को प्रधानता देने वाले पंडितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी-खरी सुनाई और ÷राम-रहीम' की एकता समझाकर हृदय को शुद्ध और प्रेममय बनाने का उपदेश दिया। देशान्तर और उपासना विधि के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो भेद उत्पन्न हो जाता है, उसे दूर करने का प्रयत्न उनकी वाणी बराबर करती रही। यद्यपि वे पढ़े-लिखे न थे, पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी।२१कबीर की प्रतिभा ही नहीं, वाणी भी प्रखर थी। काजी को फटकार लगाते हुए वे कहते हैं -अरे, काजी! किस किताब की बात करते हो। इतने दिनों से पढ़ रहे हो, परन्तु अभी तक प्रभु का तत्त्व समझ में नहीं आया है। तुम क्या समझते हो कि सुन्नत कर देने से कोई व्यक्ति मुसलमान हो जाता है? यदि प्रभु ने मुझे मुसलमान बनाया होता तो खतना स्वयं हो जाता। पुरुष का तो सुन्नत कर दोगे, लेकिन स्त्री तो हिन्दू ही रह जायेगी क्योंकि उसका खतना नहीं हो सकता। इस तरह आधे तो हिन्दू ही रह जाओगे। अतः किताबी बातें करना व्यर्थ है। हिंसा करना कोई धर्म नहीं है - काजी कौन कतेब बखानै।/पढ़त-पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहीं जानै।/.../और खुदाई तुरक मोहि करता, तौ आपै कटि किन जाई।/हौं तो तुरक किया करि सुन्नति, औरति सौं का कहिये।/अरध सरीरी नारि न छूटै, आधा हिन्दू रहिये।२२
इस प्रकार कबीर बाह्याडम्बर करने वालों को खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकते। कबीर की इसी विशेषता को लक्ष्य करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पण्डित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी-सभी उसके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं। अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खानेवाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।२३
कबीर के लिए हिन्दू और मुसलमरान दोनों एक समान हैं। दोनों धर्मों के बाह्याचारों का उन्होंने गहराई से अध्ययन-मनन एवं विश्लेषण किया है और अंततः उन्हें निरर्थक पाया है। कबीर के चिंतन के केन्द्र में मानव कल्याण' है और इसी कसौटी पर वे इनका मूल्यांकन करते हैं। ऐसा धर्म, जो मानव-मानव के बीच न केवल भेदभाव करता हो, वरन्‌ वेश्यागामी होने पर भी जातिगत आधार पर किसी को श्रेष्ठ और सच्चरित्रा होने पर भी दूसरे को अस्पृश्य एवं नीच मानता हो, जीव हत्या एवं मांस-भक्षण को धर्म सम्मत ठहराता हो, मौसी की लड़की से विवाह को सामाजिक मान्यता प्रदान करता हो, उस पर तो कबीर तरस ही खा सकते हैं। हिन्दू और तुर्कों की जात्याभिमानजन्य अकड़ को देखकर कबीर उनकी अज्ञानता को उजागर करते हुए व्यंग्यात्मक स्वर में कहते हैं - अरे इन दोहुन राह न पाई।/हिन्दू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।/वेस्या के पाइन-तन सोवै यह देखो हिन्दुआई।/मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।/खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहिं में करै सगाई।/.../हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।/कहै कबीर सुनो भाई साधो कौन राह ह्‌वै जाई।२४
कबीर की दृष्टि में जीवन हत्या सबसे बड़ा पाप है और पापी को मुक्ति किसी भी दशा में नहीं मिल सकती, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। सबसे निरीह प्राणी है-बकरी। जो लोग बकरी खाते हैं और उसकी खाल निकालते हैं, उनका तो बकरी से भी बुरा हश्र होगा, ऐसा कबीर का मानना है - बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।/जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल॥२५
इसी तरह खुदा को प्रसन्न करने के लिए मुसलमान दिन भर रोजा रखते हैं, लेकिन रोजा खत्म होने पर रात को गाय मारते हैं। कितना विरोधाभास है व्यक्ति की कथनी और करनी में। एक ओर हत्या और दूसरी ओर खुदा से बंदगी। ऐसे में खुदा कैसे प्रसन्न हो सकता है - दिन को रोजा रहत है, रात हनत है गाय।/यह खून वह बंदगी, कहुँ क्यों खुशी खुदाय।२६ प्रत्येक जीव खुदा की संतान है और सभी उसे प्यारे हैं। सभी प्राणियों में एक ही प्रभु का निवास है। गोहत्या का विरोध करने पर थोड़ी देर के लिए हिन्दू कबीर से प्रसन्न हो सकते हैं परन्तु एक ओर जीव हत्या और दूसरी ओर प्रभु-भक्ति में कोई संगति नहीं है। उनके अनुसार जिनका हृदय पवित्र नहीं है, उन्हें बाह्य साधना से स्वर्ग नहीं, अपितु नरक ही मिलेगा - सब घटि एक एक करि जानै, भौं दूजा करि मारै।/कुकड़ी मारै, बकरी मारै, हक हक हक करि बोलै।/सबै जीव साईं के प्यारे, उबरहुगे किस बोलै।२७
हिन्दू गाय को पवित्रा मानते हैं। गोहत्या तथा गोमांस भक्षण को पाप समझते हैं, जबकि अन्य पशुओं को बाँधकर उनका मांस खाते हैं। कबीर की दृष्टि में इस तरह का भेद निराधार है। जिस प्रकार जीव सभी समान हैं, उसी प्रकार उनके शरीर का मांस भी एक ही समान है, चाहे वह मांस मुर्गी, हिरनी या गाय किसी का भी हो और जो लोग जानबूझकर मांस भक्षण करते हैं, वे हत्यारे नरक ही जाते हैं - मांस मांस सब एक हैं, मुरगी हिरनी गाय।/आँखि देखि नर खात है, ते नर नरकहिं जाय।२८
संदर्भ-ग्रन्थ१. (सं.) डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन्स, प्रा०लि०, वाराणसी, १९९६, साखी, ११९-१२०, पृ. ५४८
२.वही,पद-३००,पृ.६४७
३.वही,साखी,२१-४,पृ.२८९
४.वही,पृ.७७६
५.वही,पद-४०२,पृ.६९०
६.वही,साखी,१११-१२,पृ.४४७
७.वही,साखी,६७-६८,पृ.४०२
८.वही,साखी,२४-५,पृ.२९३
९. वही, साखी, १११-२०, पृ. ४४७
१०. वही, साखी, १०९-१, पृ. ४४४
११. वही, साखी, १०९-३, पृ. ४४५
१२. वही, साखी, १०९-१३, पृ. ४४५
१३. वही, साखी, २२-५, पृ. २८९
१४. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १२०
१५. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), पृ. ७७७
१६. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १५९
१७. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), साखी, ३१-७, पृ. ३०६
१८. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर-(कबीर-वाणी, पद-१६८), (१९८७), पृ. २७०
१९. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), साखी, ३१-१०, पृ. ३०७
२०. वही, पद-५६, पृ. ५४७२१. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, (२०३५ वि.) पृ. ५५
२२. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), पद-५९, पृ. ५४८
२३. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १८५
२४. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर-(कबीर-वाणी, पद-२४७,), (१९८७), पृ. २९४
२५. डॉ० युगेश्वर, कबीर समग्र, (१९९६), साखी, १४६-१८, पृ. ४८६
२६. वही, साखी, १४६-३३, पृ. ४८७
२७. वही, पद-६२, पृ. ५४९
२८. वही, साखी, १४६-६, पृ. ४८६

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शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में दलित संदर्भ

डॉ० जगत सिंह बिष्ट
समकालीन हिंदी कहानी साहित्य में शैलेश मटियानी एक महत्त्वपूर्ण नाम है। हिंदी कहानी साहित्य के कथा सम्राट प्रेमचंद के बाद सर्वाधिक कहानी रचनाएँ शैलेश ने ही दी है। इनके समय-समय पर करीब ३० कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए थे। अब शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ, उनके पुत्र राकेश मटियानी के संपादकत्व में प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद से पाँच खंडों में प्रकाशित हो चुकी है जिसमें शैलेश मटियानी की करीब २५० कहानियाँ संगृहीत है। शैलेश मटियानी का कहानी साहित्य व्यापक जीवन संदर्भों का वाहक है क्योंकि इनके कहानी साहित्य के वृत के अंतर्गत विविध क्षेत्रों, वर्गों और संप्रदायों संबद्ध जीवन संदर्भों का चित्राण हुआ है किंतु इनके कहानी साहित्य में भारतीय समाज के दबे, कुचले, शोषित, उपेक्षित और हाशिए के निम्न वर्गीय जीवन संदर्भों का सर्वाधिक निरूपण हुआ है। वस्तुतः शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में चित्रित यह निम्न वर्ग कुमाऊँ के अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध है। किंतु इनकी कहानियों में चित्रित उपेक्षित, पीड़ित, शोषित और दबा-कुचला वर्ग चाहे जिस क्षेत्र, वर्ग, संप्रदाय से संबद्ध है अपने प्रकृत रूप में दिखाई देता है। इसका कारण शैलेश मटियानी की अत्यंत संवेदनशील, उस अंतर्दृष्टि को माना जा सकता है जिसने उन्हें अपनी भोगी एवं देखी चीजों को यथार्थ रूप में पकड़ पाने की अद्भुत क्षमता दी है। यही कारण है कि शैलेश मटियानी कुमाऊँ अंचल से संबद्ध कहानीकार होते हुए भी जब वे प्यास, अहिंसा, बिद्दू अंकल, भय जैसी नगरीय जीवन से संबद्ध कहानियाँ लिखते हैं तो वे भी कुमाऊँ अंचल से संबद्ध कपिला, नाबालिग, ब्राह्मण, खरबूजा, अर्द्धांगिनी जैसी कहानियों की भाँति अत्यंत गहरे प्रकृत रूप में दिखाई देती है। इन कहानियों में किसी भी प्रकार का बनावटीपन एवं कृत्रिमता नहीं दीखती। कहना यह है कि हिंदी कहानी साहित्य में प्रेमचंद के बाद ऐसा कोई कहानीकार नहीं दिखाई देता जिसमें शैलेश मटियानी के समान विविध वर्गों, स्थानों और धर्मों से संबद्ध जीवन को, उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने की दक्षता हो। शैलेश विविध परिवेश के भीतर से अपनी कहानियों के कथ्य का चयन करते हैं उसके अनुरूप पात्रों के चयन से लेकर उनके मासिक स्तरों का मार्मिक उद्घाटन करते हैं। उससे वे आसपास को ठीक-ठाक जाँचने-परखने की अद्भुत अंतर्दृष्टि का परिचय देते हैं।शैलेश मटियानी ने दलित जीवन संदर्भों पर पर्याप्त कहानियाँ लिखी हैं उन कहानियों में अहिंसा, जुलूस, हारा हुआ, संगीत भरी संध्या, माँ तुम आओ, अलाप, लाटी, भँवरे की जात, आंधी से आंधी तक, परिवर्तन, आक्रोश, भय, आवरण, दो दुखों का एक सुख, चुनाव, प्रेतमुक्ति, चिट्ठी के चार अक्षर, वृत्ति, सतजुगिया, गोपुली गफूरन, गृहस्थी, इब्बू मलंग, प्यास, शरण्य की ओर आदि कहानियाँ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कहानियों में दलित वर्ग से संबंधित चरित्र मुख्यतः तीन रूपों में चित्रित हुए हैं। पहला-वह जो भारतीय समाज व्यवस्था की अमानवीयता से लाचार होकर समझौता करता दिखाई देता है। दूसरा-वह जो समाज व्यवस्था के प्रति आक्रोश तो व्यक्त करता है किंतु उसका आक्रोश इतना दबा होता है कि अंततः टूटकर समझौते की विवशता को झेलता है। तीसरा-वह जो अपनी मान-मर्यादा एवं हितों के लिए समाज व्यवस्था से सीधे टकराता है। अतः कहने में संकोच नहीं है कि शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में चित्रित दलित सरोकार अपने यथार्थ रूप में व्यक्त हुए हैं जिसमें समकालीन भारतीय समाज में आए बदलाव के स्पष्ट स्वर हैं।इनकी अहिंसा कहानी का चरित्र जगेशर दलित वर्ग से संबद्ध है वह शासकीय व्यवस्था से सर्वाधिक संत्रास्त है। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद अपनी पत्नी के उपचार के लिए धन एकत्रिात करता है किंतु सरकारी अस्पतालों के कार्यरत कर्मचारियों एवं डॉक्टरों की अमानवीयता एवं भ्रष्ट आचरण के कारण वह ऑपरेशन से पूर्व ही दम तोड़ती चित्रित हुई है। वस्तुतः इस कहानी में जहाँ एक ओर दलित वर्ग की भारतीय समाज में प्रस्थिति का यथार्थ व्यक्त हुआ है वहीं इस कहानी का दलित चरित्र दलित चेतना से युक्त चित्रित हुआ है इसीलिए वह विद्रोह की आग में झुलसता तो दिखाई देता ही है इसके अतिरिक्त वह प्रतिशोध से भरकर डॉक्टर की हत्या करता भी चित्रित हुआ है। इनकी जुलूस कहानी में भी चित्रित दलित चरित्र वर्तमान भारत की घिनौनी राजनीति से यंत्रणा पाते चित्रित हुए हैं। इस कहानी की दलित नारी चरित्र बुधा राम की विधवा माँ सर्वाधिक कष्ट पाती है क्योंकि राजनीति प्रेरित पुलिस तंत्र के द्वारा महालक्ष्मी के दिन जुवारियों की जो धरपकड़ होती है उसमें उसका बेटा भी पुलिस द्वारा गिरफ्तार होता है। कहानीकार ने उसे अनेक प्रकार की आशंकाओं से ग्रस्त होते चित्रित किया है ''कहीं इसकी सरकारी दफ्तर की चपरासगीरी भी न चली जाए? कहाँ अगले ही महिने गौना सिर पर और कहाँ थुक्का फजीहत आ गयी।''१ इनकी हारा हुआ कहानी में भी गैरदलितों की दलितों के प्रति आम धारणा का यथार्थ व्यक्त हुआ है।
किंतु इस कहानी में आम धारणा के विपरीत परिणाम निकलते दिखाई देते हैं। इस कहानी का दलित चरित्र दुखहरन मोची अत्यंत असहाय होते हुए भी गैरदलित चरित्र गंडामल पहलवान के द्वारा विधवा पुत्री कैलासों के प्रति बुरी नजर डालने पर, जिस प्रकार का कथन करता है उससे उसकी दलित चेतना व्यक्त होती है, ''कह देना अपने बाप गंडामल पहलवान से, आगे से मेरे घर की तरफ मुँह किया, तो उसकी बेहया आँखों को कटन्नी से बाहर खींचकर बाहर निकाल दूँगा और जबान में ठोक दूँगा जूते की नाल! पता चल जाएगा हराम जादे को कि किसी की बेटी को बुरी नजर से देखना क्या होता है।''२ वस्तुतः इस कहानी में कहानीकार ने एक कमजोर, विवश और लाचार दलित के द्वारा फेंकी गई चुनौती से शक्तिशाली गैरदलित के टूटते मनोबल को दर्शाकर महान आदर्श के साथ-साथ सामाजिक परिर्वन का संकेत भी प्रस्तुत किया है।शैलेश मटियानी की 'संगीत भरी संध्या' कहानी दलित विमर्श से भरी पड़ी है।
इस कहानी में दलित चरित्र परंपरावादी और प्रगतिशील दोनों प्रकार के हैं। इस कहानी के रमदिया और गुणवंती दलित चरित्रा परंपरावादी है जो अपने परंपरागत पेशे (नाच-गाना) के प्रति समर्पित दिखाई देते हैं इसीलिए तो इस कहानी का दलित चरित्र रमदिया अपने पेशे से उदासीन भाई सुंदरिया को फटकारता चित्रित हुआ है, ''कमअकल साले, जरा अपनी औकात पर रह। जाने कहाँ से स्साला किसी झुटके का पैदा हो गया है। खानदानी होता, तो जरा तबले-सारंगी-हारमोनियम में सुर लगाता। ले मेरा यार कुल्ली-कबड़ियों के जैसे नीच काम करेगा...अरे स्साल, बोझ ढोना, मजदूरी करना क्या कोई हम लोगों का पेशा है?''३ इसके विपरीत मोहिनी और सुंदरिया अपने पेशे के प्रति नफरत करते चित्रित हुए हैं। दलित नारी चरित्रा मोहिनी तो अपने पति को परंपरा प्राप्त पेशे से चिपके रहने के लिए फटकारती चित्रित हुई है, ''सुंदरिया बेचारे पर क्या बिगड़ रहे हो, भरतार? मैं तो कहती हूँ कि मेरे सुंदरिया भाई जैसे सारे कबीलों में पैदा हो जाएँ, तो जरा हम रंडियों के सुख के दिन देखने को मिलें। यह स्साला अठन्नी-दुअन्नी के भाव से अपने अंग हिलाने का पलीत करम तो छूटे... सुंदरिया का सुर तबले-सारंगी में नहीं लगता है, इसीलिए इस छोरे को छाती से लगाकर रख रही हूँ कि किसी अच्छी जाति-औकात का होगा, तो इस पलीत पेशे को त्यागकर, कहीं इज्जत की रोटी कमा खायेगा।''४ इस कहानी की मोहिनी एवं सुंदरिया दलित चरित्रों की दलित चेतना अकारण नहीं है बल्कि गैरदलितों से मिलने वाली उपेक्षा एवं अमानवीय व्यवहार से मुक्ति की छटपटाहट है। इनकी 'माँ तुम, आओ' कहानी में भी पर्याप्त दलित संदर्भ है।
इस कहानी में गैरदलितों की अमानवीयता और दलित वर्ग से संबद्ध चरित्रों को दलित होने के बोध के स्तरों से गुजरते चित्रित किया गया है। इस कहानी के दलित वर्ग से संबद्ध बच्चू बाल चरित्र और बड़ी माँ नारी चरित्र को गैर दलित चरित्र माधो काका दलित होने के त्रासद बोध के धरातल पर ले जाता चित्रित हुआ है। इसके अतिरिक्त, इस कहानी के दलित चरित्रा दलित होने के स्तरों से गुजरते हुए अपार यंत्रणा पाते दीखते हैं इसीलिए तो इस कहानी का बाल चरित्र बच्चू गैरदलित चरित्रा ठाकुर माधो काका की उपेक्षा से दलित होने के आत्मबोध एवं यंत्रणा को व्यक्त करता दिखाई देता है, ''अच्छा बड़ी माँ, एक बात बताओ। माधो काका हरिजन का बच्चा कहते हैं, तो मुझे बहुत बुरा लगता है - लेकिन तुम डूम भी कहती हो तो इतना अच्छा क्यों?''५ इसके अलावा, इस कहानी का गैरदलित चरित्र, दलित बाल चरित्र के पिता पुन्नी ठाकुर की आर्थिक विवशता का फायदा उठाकर, अपनी वचन बद्धता के कारण दलित परिवार के भीतर संघर्ष उत्पन्न करता है किंतु दलित बाल चरित्रों की सोच-समझ के कारण परिवार टूटने से बच जाता है। शैलेश की अलाप कहानी में दलित चरित्र डिगर राम के जीवन की विविध प्रकार के आलाप का कथन हुआ है।
एक ऐसा आलाप जिससे आर्थिक रूप से लाचार एक दलित के यथार्थ जीवन की मार्मिक अभिव्यंजना हुई है। इनकी लाटी कहानी में गैरदलितों के द्वारा आर्थिक रूप से विवश दलित नारी चरित्र उत्तमा लाटी के प्रति घोर उपेक्षा का निरूपण हुआ है। अपने प्रेमी डिगरुवा की मृत्यु से अत्यंत आहत होकर विलाप करने पर गैरदलित चरित्र, उसके प्रति सहानुभूति के बजाय संवेदनहीनता का परिचय देते दीखते हैं, ''अब संगमरमर की मूरत जैसी खामोश क्यों बैठी है, ससुरी! बोल? अरे राँड! कुछ तो बोल कि अपने खसम के मरने पर तू क्यों ढाई मील तक मुर्दे के पीछे चुडैल जैसी चली आई और क्यों तूने नौटंकी जैसी भीड़ इकट्ठी कर ली।''६ वस्तुतः लाटी कहानी में दलित नारी चरित्रा के प्रति, इस प्रकार का कथन कहीं न कहीं भारतीय समाज की संवेदन शून्यता ही व्यक्त करता है जिससे दलित वर्ग ने घोर उपेक्षा पाई है। शैलेश की परिवर्तन कहानी दलित संदर्भों की दृष्टि से प्रभावशाली है। क्योंकि इस कहानी में दलित जीवन से संबद्ध वे सारे प्रसंग हैं जिससे दलित विमर्श किया जा सकता है। देवराम और जसुली परिवर्तन कहानी के दलित चरित्र हैं ये दलित चरित्र गैरदलितों की उपेक्षा एवं अमानवीयता से एक साथ संत्रस्त और आक्रोशित हैं। कहना यह है कि इस कहानी में वर्षों से पीड़ित दलित वर्ग में गैरदलितों के आतंक से मुक्ति की छटपटाहट दिखाई देती है इसीलिए तो इस कहानी का दलित चरित्र देवराम अपनी बिरादरी के सामाजिक उत्थान के लिए चिंताशील दिखाई देता है ''लगभग चालीस-पैंतालीस वर्षों से इसी डुमौड़िया विमलकोट की धरती से लगा हुआ देवराम कभी-कभी बहुत दुखी और कुंठित हो उठता है कि ठाकुरों और ब्राह्मणों की तुलना में बहुत ही कठोर परिश्रम करने पर भी, उसकी जाति बिरादरी के लोगों को न तो आर्थिक सुविधाएँ हो पाती हैं और न सामाजिक क्षेत्र में ही उन लोगों को आदर मिल पाता है।''७ कुल मिलाकर यह कहानी दलित चेतना की वाहक है जिसमें समकालीन भारतीय समाज में व्यक्ति स्वतंत्रता की अनुगूँज है जो शैलेश के समकालीन बोध को प्रदर्शित करती है। इनकी भँवरे की जात और गृहस्थी कहानी एक जैसी हैं। इन दोनों कहानियों में कुमाऊँ अंचल की नाच-गाकर आजीविका चलाने वाली मिरासी दलित जाति से संबद्ध नारी जीवन का मार्मिक चित्रण हुआ है। इन दोनों कहानियों में चित्रित दलित नारी चरित्र मुख्य रूप से आर्थिक कठिनाइयों से संत्रस्त चित्रित हुई हैं और इस कहानी की नारी चरित्र गैरदलितों से भी कम नहीं छली जाती है। फिर भी ये कहानियाँ अलग-अलग प्रभाव छोड़ती दिखाई देती हैं।
यद्यपि इन दोनों कहानियों की नवयुवती दलित चरित्र आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए नए मूल्यों को तलाशती दिखाई देती है किंतु इस तलाश में भँवरे की जात कहानी की दलित चरित्रा कुंतुली स्वयं तलाश बन जाती है क्योंकि सामान्यतः एक दलित नवयुवती का गैर दलित विवाहिता पुरुष के साथ प्रेम प्रसंग का जो हश्र होता है, अंततः वही उसके साथ भी होता है। किंतु प्रेम प्रसंगों में विफलता के बावजूद वह कहानी के अंत में महान्‌ आदर्श स्थापित करती दिखाई देती है वह जब अपनी पुत्री के गैरदलित पिता के पास अपने हक़ के लिए जाती है तो वह उसकी पत्नी से प्रभावित होकर, अपना दावा छोड़ती चित्रित हुई है, ''मैं तो नाच-गाकर भी जिन्दगी ठेल लूँगी लेकिन तुम कहाँ तक मायके में पड़ी रहोगी। मैंने अपना दावा छोड़ा।''८ इनकी आक्रोश कहानी में भी दलित पड़ोसी के बच्चों के घर में आने-जाने के कारण एक गैर दलित परिवार के भीतर तनाव उत्पन्न होता चित्रित हुआ है क्योंकि गैर दलित परिवार के मुखिया के मन में संदेह है कि ''आजकल के लौंडे-लौंडियाओं को अंतर्जातीय शादी-ब्याह करते देर क्या लगती है, भला।''९ किंतु जब वह अपने बच्चों को बुलाने पड़ोसी दलित परिवार के घर जाता है तो पड़ोसी कायस्थ परिवार की विधवा नारी चरित्र तारादेवी का देखकर अपना क्रोध भूल जाता है और उसके मन में तारा देवी के प्रति जबरदस्त आकर्षण उत्पन्न होता दिखाई देता है। इतना ही नहीं दलितों की घोर उपेक्षा करने वाला गैर दलित चरित्र कांता बाबू घर लौटते समय न केवल दलित नारी तारादेवी को अपने घर आने का आमंत्रण देता बल्कि दलितों के प्रति अपनी जिस धारणा को व्यक्त करता है, उससे उसकी दलितों के प्रति दोहरी मानसिकता ही व्यक्त होती है, ''अच्छा, अब आप कब आयेंगी, हमारे यहाँ? देखिए, हम लोगों से संकोच न रखिएगा। खासतौर पर मैं तो आज के जमाने में कायस्थ - ब्राह्मणों में आदमी में बाँटकर सोचना हीनता समझता हूँ। आप जब भी अकेली होती हैं, चली आया करें। मैं तो काम के दिनो में सवेरे और शाम को घर पर ही हुआ करता हूँ।''१०
वस्तुतः आक्रोश कहानी में शैलेश ने गैरदलित पुरुषों की विडम्बनापूर्ण नियति का उद्घाटन किया है जिससे दलित वर्ग की नारियाँ वर्षों से छली आ रही हैं।दलित संदर्भों पर आधारित शैलेश मटियानी की गोपुली गफूरन कहानी सर्वाधिक प्रभावशाली है। वह अद्वितीय सौंदर्य के कारण गैर दलित चरित्रों के हास-परिहास और काम चेष्टाओं का कारण बनती चित्रित हुई है। इस कहानी के गैर दलित चरित्र खीम सिंह, प्रोफेसर तिवारी, भोपाल शा, अदलूमियाँ और किरपाल गुरु सबके-सब, उसके प्रति आकर्षित होते चित्रित हुए हैं। उसके शरीर के स्पर्श सुख के लिए ही, उसे सहयोग देते दिखाई देते हैं, ''भोपाल शा की दुकान से गोपुली के मालिक देबराम ने गल्ले की उधारी बाँध रखी थी। किरपाल दत्त पुरोहित अपने जजमानों को ताँबे के कलशे देबराम के ही यहाँ से खरीदने की सलाह देते थे। खीम सिंह होटल वाला गोपुली को गरम-गरम शिकार-भुटुवा हाफ चार्ज लेकर खिलाया करता है। अक्सर ही इन लोगों के आमने-सामने आना पड़ता है और दो-चार ठिठोलियाँ भी सहनी पड़ती है।''११ किंतु पति की मृत्यु के बाद सभी गैरदलित चरित्र गोपुली गफूरन के घोर आर्थिक संकट के क्षणों में साथ न देकर अवसरवादिता का परिचय देते हैं, ''गोपुली गफूरन हो गयी कि बालकों के भूखे मरने की नौबत आ गयी और भोपाल शा ने उधार देना बंद कर दिया था।...खीम सिंह की नियत नहीं बदली थी, मगर गोश्त की तश्तरियों से बालकों का पालन-पोषण नहीं हो सकता था। किरपाल गुरु मदद करने को तैयार थे, मगर गोपुली को ताँबे के कलशों पर फूल निकालने की कला नहीं आती थी। बिरादरी के लोगों ने ऐसी पीठ फेरी, आसरा देने की जगह ताने देने लगे।''१२ कहना यह है कि इस कहानी की दलित चरित्र गोपुली के दलित और उसमें भी दलित नारी होने की दोहरी मार झेलती चित्रित हुई है।
अंततः वह आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए अपने धर्म से भिन्न धर्म से संबद्ध अहमद अली से विवाह तो करती है किंतु वहाँ वह अनेक बंदिशों से घिरती अपरिमित कष्ट पाती दिखाई देती है। इसीलिए तो वह कहती है ''अपने मजे की बात तुम्हीं लोग जानो री! मुझे तो जो कुछ मजा आना था, पिछले साल तक आ चुका।.... अब सिर्फ सजा बाकी रह गयी है।''१३ शैलेश मटियानी की आवरण कहानी की दलित नारी चरित्र रेवती भी गैरदलितों के छल-प्रपंचों का दंश झेलती चित्रित हुई है। वह बाल विधवा है। उसे गाँव का ही गैरदलित चरित्र बहला-फुसलाकर काम वासनाओं का शिकार बनाता है और दलित विधवा के गर्भवती होने पर, उसे अपनाने के बजाए, उसके लिए अनेक प्रकार के संकट उपस्थित करता है। इसके अलावा, उसकी पत्नी दलित नारी चरित्र के प्रति जिस प्रकार का कथन करती है उससे भारतीय समाज में गैर दलितों की दलितों के प्रति अमानवीय धारणा व्यक्त हो जाती है, ''साफ पानी में थूकने से कुछ नहीं होता, मगर कीचड़ में पेशाब करने से भी बुरा होता है राँड मेरी लाड़ली सौत बनके, जैसे मेरे खसम के नाम की सरकारी मुहर लगाकर लाई हो। अरे, बिना मालिक के खेत में बीज किसका पड़ा, किसका नहीं!''१४ इतना ही नहीं, इस कहानी में दलित नारी चरित्र रेवती ठाकुर हरपाल से छली जाने पर, उसे काश्तकारी से बेदखली की पीड़ा से भी गुजरना पड़ता है। पंचायत बिठाई जाती है किंतु पंच भी ठाकुर हरपाल के पक्ष में निर्णय देते हैं। इस कहानी की दलित नारी चरित्र रेवती तमाम प्रकार के लांछनों और अमानवीयता के बावजूद टूटती नहीं बल्कि पंचों के निर्णय के प्रति विद्रोह करती, अपने स्वाभिमान का परिचय देती है ''पंच महाराज लोगों, हंसों की पाँत गू खा गई, मगर कौवे की जात अपना धरम नहीं छोड़ेगी। जिस दगा बाज नामरद ने थूककर चाट लिया, उसकी जमीन में पाँव रखने तो मर जाना अच्छा है।''१५ इस कहानी में दलित चेतना के स्वर भी व्यक्त हुए हैं। इसीलिए तो ठाकुर हरपाल के द्वारा दलित रेवती को काश्तकारी से बेदखल किए जाने पर, उसके दलित बिरादर विरोध करते चित्रिात हुए हैं, ''अब कोई विलायती वालों का राज नहीं है। जिस जमीन को रेवती बोती-काटती आ रही है, उसे हरपाल नहीं छीन सकता।''१६ यद्यपि इस कहानी का गैर दलित चरित्र हरपाल सब कुछ अपने पक्ष में कर लेता है तथापि वह अपराध बोध से भी कम ग्रसित नहीं दिखाई देता है ''मगर, बिना देवराम के ही, कुछ कहे उन्हें अनुभव हुआ कि अट्टहास से वो अपने नंगे होते को सिर्फ उतना ही ढँक पा रहे हैं, जितना देवराम अपनी सिमटी हुई लंगोटी से अपनी देह को ढँक पा रहा है।''१७
शैलेश मटियानी की हत्यारे कहानी में पर्याप्त दलित संदर्भ है। इस कहानी में दलित चेतना मुखरित तो हुई ही है इसके अतिरिक्त दलितों की भावनाओं को भड़काकर राजनीति करने वाले नेताओं की कुत्सित चेष्टाएँ भी अनावृत्त हुई हैं। इस कहानी के शिवचरण केवट और हरफूल चंद दलित चरित्र अपनी दलित बिरादरी के प्रति पर्याप्त चिंताशील हैं। ये दोनों चरित्र केवटपुरा हरिजन समाज जैसे दलित संगठनों के द्वारा दलित बिरादरी को सामाजिक चेतना की प्रदीप्त प्रेरणा देते चित्रित हुए हैं। दलित चरित्रा हरफूल चंद अपनी बिरादरी को क्रांति का आवाहन करता चित्रित हुआ है, ''तो मैं आप लोगों से क्या कह रहा था कि हम हरिजन भाइयों पर जोर-जुल्मों की हुकूमत चलाने के वे नादिरशाही जमाने गुजर चुके, जो हमारे बाप-दादाओं के पीठों पर अपने जालिम निशान छोड़ गए हैं।...अब वक्त आ गया है कि हम हरिजन दुनिया में अपने नामोनिशान छोड़ जाएँगे।''१८ इस कहानी का गैर दलित नेता संकटमोचन सिंह दलितों के साथ मिलकर राजनीति करता चित्रित हुआ है। वह दलित शिवचरण केवट को भड़काकर अपनी सीट सुरक्षित करता दिखाई पड़ता है। किंतु उसकी अवसरवादिता तब सामने आती है, जब दलितों के अवैध कब्जों को नगरपालिका के औजारों से लैश दस्ते के आने पर वह घटना स्थल से नदारत होता है इसीलिए दलित चरित्र शिवचरण केवट उसकी धोखाधड़ी का उद्घाटन करता कहता है, ''ई ससुर ठाकुर संकटमोचन और ताऊ हरफूल चंद दोनों नदारत हैं। दोनों धोखे बाज हैं।''१९ फलतः वह अकेले जूझता अंततः अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है, इसीलिए तो उसकी पत्नी रामरती, अपने पति की मौत का जिम्मेदार गैर दलित नेता संकटमोचन सिंह और हरफूल चंद को मानती है, ''हमारे इनके तो सरकार नहीं मारी है, ई राक्षस ससुर ठाकुर संकटमोचन सिंह और तुम्हारे बुढ़ऊ हरफूल चौधरी मरवाय दिए हैं।''२० चिट्ठी के चार अक्षर कहानी की दलित नारी चरित्रा दुर्गा की त्रासदी का मार्मिक चित्रण हुआ है। घर की विवशताओं के कारण, उसे गायों को चराने के लिए वन जाना पड़ता है किंतु उसे वन में ब्राह्मणों एवं ठाकुरों के छोंकरों की छेड़-छाड़ का सामना करना पड़ता है। उसे गैर दलित नव युवक परताप ठाकुर का संरक्षण तो मिलता है किंतु यह संरक्षण, उसके लिए कलंक का कारण बनता है। दोनों के बीच अपार प्रेम होने के बावजूद जातीयता की दीवार, दुर्गा के लिए अपार यंत्रणा का कारण बनता है। फलतः दलित नव युवती दुर्गा के साथ वही होता है जैसा भारतीय समाज में, अपने गैर दलित प्रेमी को अपना सर्वस्य समर्पित करने वाली आम दलित नव युवतियों के साथ होता है। किंतु इस कहानी की दलित चरित्र दुर्गा पर्याप्त प्रगतिशील, साहसी और उदात्त विचार संपन्न चित्रित हुई है इसीलिए तो वह हारती नहीं है। अंततः संघर्ष करती है और अपने प्रेमी की विवशता तथा अपनी नियति से विवश होकर, उसे क्षमा कर उदात्त प्रेम की अभिव्यंजना करती है। इसके अलावा, इस कहानी का गैर दलित ठाकुर परताप भी एक प्रगतिशील चरित्र के रूप में दिखाई देता है। तमाम प्रकार की सामाजिक बाधाओं के बावजूद, वह अपनी प्रेयसी को न अपना पाने के अपराध बोध से संत्रस्त दिखाई देता है और सेना में भर्ती हो जाने के बाद सामाजिक बंदिशों के बावजूद भी अपनी दलित प्रेमिका के प्रति समर्पित चित्रित हुआ है, ''सच प्यारी, तेरे साथ विश्वासघात करने का दुख जैसा मुझे सताता रहा है मेरी ही आत्मा जानती है। मगर अब जब मैं घर लौटूँगा, तो तुझे खुले आम अपनी घरवाली के तौर पर कबूलूँगा।''२१ दलित चेतना की दृष्टि से शैलेश मटियानी की सतजुगिया सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कहानी है।
इस कहानी में वर्षों से उपेक्षित एवं शोषित दलित वर्ग की नई पीढ़ी में भारतीय अमानवीय समाज व्यवस्था के प्रति खुला विरोध व्यक्त हुआ है। इस कहानी में दलित वर्ग से संबद्ध चरित्र दो पीढ़ियों से संबद्ध है। पुरानी पीढ़ी से संबद्ध चरित्र परंपरा से चिपके और नई पीढ़ी के चरित्र परंपरा के प्रति पर्याप्त विद्रोही हैं। इस कहानी का हरराम पुरानी पीढ़ी और परराम नई पीढ़ी से संबद्ध दलित चरित्र हैं। कहानी का पुरानी पीढ़ी से संबद्ध चरित्र हरराम पुरानी मानसिकता को दर्शाते हुए गैर दलित केशवानंद की मरी हुई भैंस को खींचने के पक्ष में हैं किंतु उसका बेटा परराम भैंस को खींचने के लिए साफ मना करता चित्रित हुआ है। फलतः उन दोनों बाप-बेटे के बीच द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न होती दिखाई देती है। परंपरा के प्रति आग्रही हरराम अपने बेटे के द्वारा भैंस खींचने की मनाही को ब्रह्मदोह२२ मानता है। जबकि उसके बेटे परराम का स्पष्ट मत है, ''सभी इस बात से सहमत थे कि जब अपना खून-पसीना निचोड़कर पेट पालते हैं, तो कम से कम इतनी तो आजादी तो होनी चाहिए कि जो काम रुचे करें। भैंसखोर मानकर, देह छूते ही सवर्ण उन्हें दुराते थे। इससे इन सभी को ठेस पहुँचती थी, जिनके हर राम जैसे रूढ़ संस्कार नहीं थे।''२३ वस्तुतः इस कहानी में जहाँ एक ओर दलित वर्ग के दो पीढ़ियों के बीच संघर्ष को वाणी तो मिली ही है वहीं कहानीकार की समकालीन बोध दृष्टि भी व्यक्त हुई है। जिससे दलित जीवन संदर्भों के नए युग की अनुगूँज सुनाई देती है। इन्होंने शरण्य की ओर जैसी कहानी भी लिखी हैं जिसकी दलित नारी चरित्र सुख - सुविधाओं की चाह में इधर से उधर भटकती चित्रित हुई है किंतु गैर दलित पुरुषों की अमानवीयता से संत्रस्त होकर अंततः अपने पुराने पति के पास लौटती दिखाई देती है। वस्तुतः इस कहानी में सुख-सुविधाओं के लिए घर-परिवार को छोड़कर दलित नारी की भटकन कुछ और नहीं बल्कि नए मूल्यों की तलाश है किंतु दलित नारी नए मूल्यों के तलाश में असफल होती चित्रिात हुई है। इन कहानियों के अतिरिक्त शैलेश ने वृत्ति, प्यास, इब्बू मलंग, दो दुखों का एक सुख जैसी कहानियाँ भी लिखी हैं जिनमें दलित चरित्र अपने प्रकृत रूप में दीखते हैं। इन कहानियों में शैलेश मटियानी ने समकालीन राजनीति, प्रशासन तंत्र, सामाजिक उपेक्षा एवं आर्थिक दुर्दशा से संत्रस्त दलित जीवन संदर्भों का मार्मिक और यथार्थ चित्रण किया है।वस्तुतः शैलेश मटियानी का कहानी साहित्य मूलतः भारतीय समाज के पिछड़े, वंचितों और आर्थिक रूप से विपन्न निम्न वर्गीय जीवन से संबद्ध रहा है। इसके अतिरिक्त, इनके कहानी साहित्य में भारतीय समाज के हासिए में रहे वर्षों से उपेक्षित एवं शोषित दलित जीवन संदर्भों का भी पर्याप्त चित्रण हुआ है। इस संबंध में श्री प्रकाश मनु का कथन उचित जान पड़ता है, ''दलितों और नीचले वर्ग के लोगों से प्यार करने वाला उनसे बड़ा और कोई लेखक हमारे बीच हुआ ही नहीं। मटियानी का पूरा कथा साहित्य इस बात की गवाही देता है। ...यहाँ प्रेमचंद के बाद शैलेश मटियानी ही सबसे बड़े जनपक्षधर कथाकार साबित होते हैं।''२४ इनके कहानी साहित्य में चित्रित दलित वर्ग कुमाऊँ अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध रहा है। उनकी कहानियों में दलित वर्ग कई रूपों में चित्रित हुआ है। इनकी कहानियों में जहाँ एक ओर आर्थिक विपन्नता एवं गैर दलितों से संत्रस्त दलितों का चित्रण हुआ है वही भारतीय समाज व्यवस्था के प्रति विरोध करते दलित भी दिखाई देते हैं।
शैलेश की कहानियों में दलित नारी सर्वाधिक संत्रस्त दीखती है। इनकी कहानियों में जहाँ एक ओर कथा सम्राट प्रेमचंद की घासवाली कहानी की मुलिया और ठाकुर का कुआँ की गंगी जैसी प्रबुद्ध दलित नारी चरित्र हैं वहीं गैर दलितों की काम पिपासा से दंशित एवं कलंक का बोझ ढोती दलित नारी चरित्र भी है। जो तमाम प्रकार की सामाजिक उपेक्षा एवं आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद भी खुशी-खुशी संघर्ष करती चित्रित हुई है। इस दृष्टि से शैलेश की भँवरे की जात, चिट्ठी के चार अक्षर, शरण्य की ओर, और आवरण, कहानियाँ उलेख्य हैं। इसके अलावा शैलेश के कहानी साहित्य में प्रेमचंद की सद्गति कहानी के गोंड जैसे दलित चरित्र भी हैं जो गैर दलितों की अमानवीयता एवं समाज व्यवस्था के संवेदन शून्यता के प्रति गहरा विरोध व्यक्त करते हैं। उनमें परिवर्तन कहानी का देबराम, सतजुगिया का परराम, हत्यारे का शिवचरण केवट आदि महत्त्वपूर्ण है। इनकी कहानियों में चित्रित कतिपय दलित नारी चरित्र तमाम कठिनाइयों के बावजूद महान्‌ आदर्श प्रस्तुत करती दीखती हैं। इनके कहानी साहित्य में प्रायः चित्रित दलित वर्ग से संबद्ध चरित्र तमाम प्रकार की कठिनाइयों के बावजूद भी मानवीय गुणों से युक्त है। इस संबंध में श्री हृदयेश का कथन उद्धृत है - ''यों उनके कथा-संसार में ...तुच्छ पेशों को चिपटाए गरीब एवं लाचार पात्र हैं, किंतु वे मानवीय गुणों के मामले में गरीब और तुच्छ नहीं हैं।''२५ इसके अलावा शैलेश मटियानी की कहानियों में कतिपय नई पीढ़ी से संबद्ध गैरदलित पुरुष चरित्र दलित वर्ग से संबंध नारियों से संबंध स्थापित करते चित्रित हुए हैं जिससे निश्चित ही समकालीन मूल्य परिवर्तन का संकेत मिलता है। इनके कहानी साहित्य के संबंध में प्रसिद्ध कथाकार पंकज बिष्ट का कथन उचित ही है, ''उनका रचना संसार ऐसे पात्रों से भरा है जो शोषित, पीड़ित और समाज के हाशिए में डाल दिए गए लोग हैं।''२६
सन्दर्भ सूची
१.शैलेश मटियानी, अहिंसा तथा अन्य कहानियाँ ; साहित्य भंडार ५०, चाहचंद, इलाहाबाद, १९९२, पृ० ११०
२. शैलेश मटियानी, हारा हुआ ; आशु प्रकाशन, इलाहाबाद, १९८५, पृ० १२७
३. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी संपूर्ण कहानियाँ - ४ ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० २६८
४. वही, पृ० २६८
५. वही, पृ० २८२
६. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - २ ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० ३४
७. शैलेश मटियानी, तीसरा सुख ; प्रतिभा प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९२, पृ० ५७
८. शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - २ ; पृ० १०१
९. वही, पृ० १६४
१०. वही, पृ० १६८
११. शैलेश मटियानी, पापमुक्ति तथा अन्य कहानियाँ ; आशु प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९४, पृ० ४९
१२. वही, पृ० ५५
१३. वही, पृ० ५९
१४. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - 1 ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० ३४८
१५. वही, पृ० ३५२
१६. वही, पृ० ३५१
१७. वही, पृ० ३५४
१८. (सं०) राकेश मटियानी, शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ - ३ ; प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, २००४, पृ० १६८
१९. वही, पृ० १७९
२०. वही, पृ० १८०
२१. वही, पृ० १८८
२२. वही, पृ० ४५१
२३. वही, पृ० ४५५
२४. आजकल ; अक्टूबर, २००१
२५. पहाड़ ; २००१, पृ० १९१
२६. आजकल ; अक्टूबर २००१

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Sunday, November 2, 2008

दलित मुसलमानों की सामाजिक त्रासदी

डॉ० तारिक असलम
भारतीय समाज की यह कैसी विडम्बनापूर्ण त्रासदी है कि यहाँ की बहुसंख्यक जातियां दलितों के रूप में पहचान रखती हैं, जिसमें से कुछ एक जातियों को राज्य एवं केन्द्र के आरक्षण पैनल में विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है और बहुत सारी जातियों को नजरअंदाज कर दिया गया है। इस मुद्दे पर मेरी सोच थी कि मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करना सर्वथा अनुचित है, दूसरे यदि आरक्षण देना अनिवार्य है तो फिर समस्त जातियों में ऐसे परिवारों या व्यक्तियों की पहचान होनी चाहिए जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखने में असक्षम सिद्ध हुए हैं।वर्तमान आरक्षण व्यवस्था के अनुसार अनुसूचित एवं जन जातियों को सर्वाधिक सुविधाएं मिली हैं और उन्होंने सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक स्तर पर विकास भी किया है। जिसके बाद होना यह चाहिए था कि जिन जातियों को आरक्षण की सुविधा मुहैया करायी गई और उन परिवारों के सदस्यों ने स्वालम्बन की दिशा में चहुंमुखी प्रगति दर्ज की। उनको आरक्षण से वंचित करते हुए, उसी समूह के अन्य व्यक्तियों को लक्ष्य समूह की सुविधाएं मिलें किन्तु सामाजिक स्तर पर देखने को यही मिल रहा है कि जिन अनुसूचित जातियों एवं जन जातियों को ''विशेष अभियान'' के तहत सरकारी सेवाओं, संस्थानों, पब्लिक सेक्टर कम्पनियों आदि में नियुक्तियां हो रही हैं। वे कुछ परिवार ही नाली के कीड़े सी जिन्दगी छोड़कर विलासितापूर्ण जीवन यापन में संलग्न दिख रहे हैं। ऐसे कई एक परिवारों के मूल्यांकन के बाद में इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि जो अपना जीवन स्तर सुधारने में सफल हो गया। वह व्यक्ति भी अपने परिवार के पीछे रह गए लोगों से कन्नी काटता है और उनके प्रति घोर अन्यायपूर्ण, अनुचित व्यवहार करता प्रतीत होता है।एक ओर देश भर में सरकारी स्तर पर चल रही विकास योजनाओं में विशेषकर गृह निर्माण संबंधी सामान्य इन्दिरा आवास योजना एवं प्रधानमंत्री आवास योजना के अन्तर्गत जिला उप विकास आयुक्त के द्वारा सरकारी निर्देश के आलोक में न्यूनतम ६० प्रतिशत आवास निर्माण एवं मरम्मती कार्य की स्पष्ट अनुशंसा की जाती है और इस प्रतिशत से कम लाभार्थियों के चयन पर दंडित करने संबंधी कार्रवाही का उल्लेख होता है। दूसरी ओर इन्हीं योजनाओं में अत्यंत पिछड़ी जाति को १७ प्रतिशत विकलांग एवं अन्य को ३ प्रतिशत, पिछड़ी जातियों को १० प्रतिशत तथा अल्पसंख्यक को भी १० प्रतिशत लाभ देने का आदेश है।
गौरतलब सवाल यह है कि बहुत सारे प्रखंड क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन जातियों की संख्या काफी कम होने के बावजूद मानक प्रतिशत के अनुरूप लक्ष्य प्राप्ति पर जोर दिया जाता है, जिससे पंचायतों के मुखियाओं के समक्ष एक गंभीर समस्या खड़ी हो जाती है क्योंकि उनके पंचायत में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या अधिक होती है अब यदि एक पंचायत में कुल दस यूनिटें गृह निर्माण हेतु प्राप्त होती हैं तो उसमें मुसलमानों का हिस्सा मात्र एक यूनिट बनता है। इस संबंध में पंचायत समिति के अलावा प्रमुख द्वारा आयोजित बैठकों में प्रस्ताव पारित कर जिला पदाधिकारी एवं जिला उप विकास आयुक्त को पत्र लिखने के साक्ष्य भी उपलब्ध हैं किन्तु उन कार्यालयों से कभी कोई तर्क संगत उत्तर प्राप्त नहीं हुआ।बिहार राज्य की पिछड़ी एवं अत्यंत पिछड़ी जातियों के वर्णन से पूर्व मैंने यह स्पष्ट करना आवश्यक समझा तो इसके कई कारण हैं जैसे कि बिहार में अल्पसंख्यक वित्त निगम, जिला उद्योग केन्द्र, स्वर्ण जयंती ग्रामस्वरोजगार योजना आदि के अन्तर्गत भी आम मुसलमानों को आर्थिक सहायता अथवा ऋण दाल में नमक के बराबर ही उपलब्ध होता है। मैंने बहुत करीब से देखा है कि यदि कोई मुस्लिम आवेदक किसी कार्य को आरंभ करने के लिए ऋण आवेदन प्रस्तुत करता है तो कार्यालय कर्मियों द्वारा कई प्रकार के अनावश्यक व्यवधान उपस्थित किये जाते हैं। यहां तक मैं स्वयं अनुभव करता हूँ कि उनके नामों को प्रखंड स्तरीय गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के लक्ष्य समूह सूची में नाम शामिल करने में कोताही बरती जाती है।केवल बिहार में ही नहीं बल्कि मैं पूरे देश के स्तर पर शिद्दत से अनुभव करता हूँ और देखता हूँ कि एक सुनियोजित षड्यंत्र के रूप में मुसलमानों को आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ेपन के साथ जीवन यापन को विवश किया जा रहा है। उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के एक नहीं अनेक स्तरों पर प्रयास किये जा रहे हैं जिसमें उनकी दहशतगर्दों, आतंकवादी, उग्रवादी आदि के लेबलों से नवाजने के बाद ''इस्लामी आतंकवादी'' का जामा पहनाया जा चुका है और इसकी सजाएं भी भारतीय मुसलमान भुगतते नजर आ रहे हैं। वह दिन ज्यादा दूर नहीं है जो शिक्षित और बुद्धिजीवी मुसलमान इस भ्रम में पड़े हैं कि इससे उनका क्या नुकसान है? इन आरोपों के दायरे में वह कहीं नहीं आते? यह मुगालता के सिवा कुछ नहीं है? जिन मदरसों में पिछड़ी और अत्यन्त पिछड़ी जातियों की ८० प्रतिशत बच्चे-बच्चियाँ दीनी (धार्मिक) और दुनियावी (सांसारिक) शिक्षाएँ प्राप्त करते हैं। उन मदरसों को इस्लामी आतंकवाद का प्रशिक्षण केन्द्र घोषित करने की विश्व स्तरीय योजनाओं को साकार कर पूरे मुस्लिम वर्ल्ड को ''बारूद'' का ढेर साबित करने की लाबिंग हो रही है। उसके प्रति किसी उच्च जाति के मुसलमान का ध्यान नहीं है। पिछड़े तो अपनी दाल रोटी की जुगाड़ में बेहाल हैं और शिक्षित, नौकरी पेशा, सुविधा संपन्न मुस्लिम जातियाँ अपने महलों में स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रही हैं।
इसका एक दिन खमियाजा भुगतना होगा।बिहार में मुस्लिम पिछड़ी जातियों के अन्तर्गत कलन्दर, चीक, चुड़िहार, दफाली, धोबी, धुनिया, नट, नालबंद, पामरिया, भठियारा, मदारी, मेहतर, लालबेगी, हलालखोर और भंगी, मिरयासिन, मुकेरी, रंगरेज, राइन, साईं, इदरीसी (दर्जी) इत्यादि को स्थान दिया गया है। यह नाम पिछड़ा वर्ग आयोग के तृतीय प्रतिवेदन के लिए गए हैं जो परिशिष्ट-६ के अन्तर्गत आयोग द्वारा तैयार की गई अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल हैं। उक्त जातियों की जिलेवार जनसंख्या क्या है? मेरी समझ से सरकार या फिर संबंधित आयोग ने सर्वेक्षण कराने का कष्ट उठाना उचित नहीं समझा, यदि इदरीसी जाति और रंगरेज जातियों को पिछड़ी जाति से उठाकर अत्यन्त पिछड़ी जाति के श्रेणी में स्थान दिया गया तो इसके लिए उक्त जातियों के समूहों द्वारा संगठित होकर किये गए प्रयास हैं, जिससे इदरीसी जाति एवं रंगरेज जाति को सामाजिक स्थिति सुधारने में कोई सफलता मिली हो अथवा नहीं।
इन जातियों के संगठन संचालकों को पौ बारह अवश्य हुए हैं। इदरीसी जाति के लोगों ने गत दिनों पटना में वार्षिक सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें महज इस बिरादरी के लोग अपने बच्चों की शादी ब्याह और अपने स्तर के लोगों के चयन में व्यस्त देखे गए। संगठन के रहनुमाओं के पास इनकी शिक्षा-दीक्षा, मान-सम्मान, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति में परिवर्तन के लिए कोई न तो प्रस्ताव सामने आया और न ही विकास योजना की सार्थक रूपरेखा प्रस्तुत की गई। अब यह संगठन एक राजनीतिक दल की छांव में सासें ले रहा है और उसके हाथों दर्जियों को नीलाम करने की घोषणाएं करने में जुटा है।इदरीसी बिरादरी की औरतें और मर्द आर्थिक तंगहाली के कारण सारा दिन मेहनत करती हैं। पुरुष कपड़े की दुकानों, हाट, बाजारों, चबूतरों, घरों में गांव-घर के कपड़े सिलाई करते हैं तो औरतें तीज-त्यौहारों, शादी-ब्याह में देने योग्य गुड्डे, गुड़िया, हाथी, घोड़े, बटुए, काज बटन, तुरपई, औरतों के लिए खुले (एक प्रकार का औरतों का जेबदार कुर्ती) हाथों से तैयार करती हैं।आज से अधिक नहीं बीस-पचीस साल पहले तक दर्जी जो खानदानी होते थे, वे गांव के पूरे कपड़े सिलाई करते थे। कुछ दर्जी स्वर्ण जाति, धनिकों से साल भर की सिलाई के एवज में जजमनिका लेते थे। उनको बड़े किसान साल में एक मुश्त फसल कटाई के समय धान-गेहूं देते थे किन्तु खानदानी दर्जियों के बुरे दिन तब शुरु हुए, जबकि पेंशन का बोलबाला बढ़ा। युवक ''टेलरिंग हाउस'' की ओर रुख करने लगे। इससे चालाक, होशियार और आर्थिक रूप से कुछ समर्थ परिवारों ने अपने लड़कों को पेंशन के अनुसार आधुनिक डिजाइन के कपड़ों की सिलाई के लिए पटना, दिल्ली, लुधियाना भेज कर प्रशिक्षित करा कर शहरों में दुकानें खोल लीं या फिर दूसरे राज्यों के गारमेंट मेन्युफेक्चरिंग कंपनियों में सिलाई-कटाई करने लगे। जबकि उम्र की ढलान पर पहुंच चुके दर्जी दरवाजों पर लंगोटा और महावीरी झंडा सिलाई कर रोटी-प्याज की जुगत में जीवन गंवाते रहे।ऐसे एक नहीं सैंकड़ों परिवारों से मिलने के बाद यह रहस्य खुला है कि दर्जी का कार्य करने वाले खानदानी दर्जियों की संख्या तेजी से घटी है।
वह अपने बिरादरी के पेशे से पेट भरने में नाकाम रहे हैं। संभवतः इसी कारण टेंट-शामियाना का काम भी पेशेवराना तौर पर अपनाया। इस पेशे में बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है। अतः यह भी इनके हाथों से निकल कर गैर बिरादरियों के कब्जे में जा चुका है। इन दिनों दर्जी का बड़े पैमाने पर काम करने वाले लोगों में मोमिन, शेख, पठान, सैयद के अलावा अनेक हिन्दू जातियां भी शामिल हो चुकी हैं। इन लोगों का इस पेशे पर एकाधिकार कायम हो चुका है और दर्जी बिरादरी भूखों मरती अथवा सड़कों पर अड़े, प्लास्टिक, साइकिल मरम्मती कार्य करते दिखाई देती है चूंकि ये आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। शिक्षा के नाम पर मदरसे की तालीम से आगे नहीं बढ़ा पाते। ये लोग धार्मिक स्तर पर स्वयं को पैगम्बर हजरत इदरीस अलैहिस्सलाम का पैरोकार मानते हैं, जो अपने जीवन काल में लोगों को शिक्षित करने के अलावा जीवन यापन के लिए सिलाई का काम किया करते थे, आज ये बिरादरी आर्थिक रूप से विपन्नता, अर्कमण्यता का शिकार है तो महज इसलिए कि इनको खोज खबर लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। इस बिरादरी में शिक्षा का स्तर ५ प्रतिशत से अधिक नहीं है।उक्त स्थितियों की दृष्टिगत रखते हुए सरकार ने बिहार में पदों एवं सेवाओं की रिक्तियों में आरक्षण अधिनियम-१९९१ की अनुसूची-१ में इदरीसी जाति (दर्जी) को जोड़ने के संबंध में कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग द्वारा संकल्प प्रकाशित किया गया। यह निर्णय ''पिछड़े वर्गों के लिए राज्य आयोग'' द्वारा की गई अनुशंसा के आलोक में बिहार अधिनियम-३, १९९२ की पिछड़े वर्गों की सूची (अनुसूची-२) के क्रमांक-३२ पर अंकित इदरीसी (दर्जी) जाति को विलोपित कर अत्यन्त पिछड़ी जाति की सूची (अनुसूची-२) के क्रमांक १०७ पर अंकित किया गया। लेकिन यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि सरकार द्वारा आरक्षण दे देने मात्र से इस बिरादरी की समस्याओं का अन्त नहीं होगा, बल्कि इसके लिए ईमानदार, कौमपरस्त, कर्तव्यपरायण, निस्वार्थ भाव से सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सुनियोजित तरीके से सामाजिक नेताओं और दिगर रहनुमाओं को भी कोशिश करनी होगी।
इसी प्रकार राज्य सरकार ने रंगरेजों की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर पर एक सर्वेक्षण प्रखंड स्तर पर निर्गत किया तो मैंने देखा कि कई कार्यालयों में उस सर्वेक्षण प्रतिवेदन का नजरअंदाज कर दिया गया। दोबारा पुनः यही सर्वेक्षण पत्र कार्यालयों को उपलब्ध कराया गया। जिसकी वास्तविक स्थितियों का आकलन के अनुरूप प्रतिवेदन सरकार को भेजवाने में स्वयं दिलचस्पी लेनी पड़ी। मुझे यह कहते हुए कोई हिचक नहीं कि बिहार भर से प्राप्त प्रतिवेदनों का निष्कर्ष सार्थक रूप में सामने आया और कपड़े रंगने के पेशेवर बिरादरी जो अपना पेशा छोड़कर कई दूसरे पेशों को अपनाये हुए थी, उसे पिछड़े वर्ग के लिए गठित राज्य आयोग द्वारा अन्य पिछड़े वर्गों की अनुसूची-२ के क्रमांक २४ से विलोपित कर अत्यन्त पिछड़ी जाति की अनुसूची-१ में सम्मिलित किया गया। यह संकल्प, बिहार सरकार के कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग के ज्ञापांक-११/वि २-पि०व०आ०-०४/२००० का० २११/पटना १५.१०.२००१ के माध्यम से जारी हुआ था।प्रख्यात लेखक एवं विद्वान जाबिर हुसेन ने अपनी एक पुस्तिका ''बिहार में पिछड़ी मुस्लिम आबादियाँ'' में एक विचारणीय प्रश्न उठाया है कि, खासतौर से इस बात का खुलासा होना चाहिए कि मुस्लिम समाज के पिछड़े एवं अत्यंत पिछड़े पेशागत समूहों के सार्वजनिक हितों से जुड़ी संस्थाओं में रोजगार अवसरों की बंदरबांट में इन उत्पीड़ित मुस्लिम आबादियों को किस हद तक नुमाइंदगी मिली है?''इस पुस्तिका में दक्षिण बिहार में आबाद जातियों को विशेष रूप से चर्चा करते हुए कुलहयया, विभिन्न नामों से जाने जाने वाले शेरशाहाबादी समुदाय, चूड़िहार, इदरीसी, जुलाहा, राईन अथवा कुंजड़ा, गद्दी, धुनिया आदि की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक स्थिति की चर्चा की है, जिस पर नये सिरे से चर्चा की आवश्यकता महसूस करता हूं मैं।
कारण कि क्या किसी बिरादरी को केवल आरक्षण सुविधा प्रदान कर देने से ही उसकी आर्थिक विपन्नता, सामाजिक संकीर्णता और शैक्षणिक पिछड़ेपन से मुक्त स्वीकार किया जाना चाहिए? वास्तव में ऐसा नहीं है इसलिए धूम फिर कर कहीं काफिले के रूप में खेमाजन कलन्दर जाति, खस्सों या मुर्गे का गोश्त बेचने वाले चीक, संभ्रान्त परिवार से लेकर निर्धन बहू-बेटियों के हाथों में चूड़ियां डालने वाली चूड़िहारिनों, सिर पर टोकरे में औरतों की जरूरत की चीजें घूम-घूमकर बेचने वाली दफालिनों, सबके गन्दे कपड़े साफ करने और गधों के साथ जिन्दगी जीने वाले मुस्लिम धोबियों, हजामत बनाने के लिए ईंट लगा कर बैठे या दरवाजे-दाढ़ी साफ करने, बाल बनाने के काम में जुटे नाइयों, जिसे बतौर मेहनताना एक-दो रुपये मिलते हैं। जबकि सैलून में पांच-दस रुपये जाड़े के दिनों में रुई धुनकर तोश्क-रजाई तैयार करने में महारथ रखने वाले धुनिया, नाच, गाकर और कई दूसरे काम करके जीवन यापन करने वाले पामरिया, कभी रस्सियों पर, कभी बन्दरों के साथ तमाशा दिखाते मदारी वालों, शादी ब्याह के अवसर पर औरतों के बीच गीत गाने वाली मिरयासिनों, गली-मुहल्ले से लेकर बाजार तक सब्जि+यां बेचने वाले सब्जी फरोशों, भीख मांगकर गुजर करने वाले साई जातियों को आरक्षण की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो सकी हैं।इसकी अनेक वजहें हैं। सर्वप्रथम तो इन जातियों में अशिक्षा का स्तर शत-प्रतिशत शून्य है।
ये अपने को सामाजिक स्तर पर संगठित नहीं कर पाये हैं। इनका कोई नेता या रहनुमा नहीं है। सरकार के दरबार में कोई पैरवीकार नहीं है जो पिछड़ी जातियां किसी प्रकार आरक्षण लाभ ले चुकी हैं। वे अपने को किसी-न-किसी सरकार में शामिल राजनीतिक दल का पक्षधर बताते हैं। उनको केवल अपनी बिरादरी का वोट जुटाने में सफलता दिखती है। तात्पर्य यह है कि मुस्लिम उच्च जातियां हों या पिछड़ी जातियां सबने जेबी संस्थाएं बना रखी हैं, जिसमें दूसरी किसी जाति के लिए कोई जगह नहीं है। वास्तव में इन जातियों को हिन्दू दलित जातियों के समकक्ष सुविधाएं मिलनी चाहिए और आज स्वतंत्रा भारत में सही मायने में कोई दलित होने की शर्तें पूरी करता है तो ये केवल भारतीय मुसलमान हैं। ये उच्च जाति के हों या निम्न जाति के, यह सब देखने की अपेक्षा आर्थिक आधार पर आर्थिक एवं आरक्षण सुविधाएं दी जानी चाहिए, जिनके बारे में किसी को कोई चिन्ता नहीं है। जिनके समक्ष अस्तित्व संघर्ष की समस्या सुरक्षा के समान मुंह फाड़े खड़ी है। इन जातियों के प्रति स्वर्ण मुस्लिम जातियों ने अपना रुख परिवर्तित नहीं किया तो निश्चित रूप से एक दिन ये लोग किसी और धर्म को स्वीकारेंगे जैसा कि प्रतिदिन हिन्दुओं की एक बड़ी जमात ईसाई धर्म स्वीकार रही है और उत्तर पूर्व भारत का एक बड़ा भाग ईसाईयत की चपेट में आ चुका है।ये मुस्लिम दलित जातियां वास्तव में नाम की मुसलमान हैं। ये धार्मिक रूप से केवल अपने नामों से पहचान रखती हैं। ईद-बकरीद के वक्त मस्जिदों में सज्दे कर लेती है अलावा इसके धार्मिक रूप से पूरे तौर पर ज्ञान शून्य होती हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति के नाम के साथ रामायण नट एक आवेदन पत्रा पर पढ़ने को मिला। मैं चौंका। चूंकि उसने अपनी जाति मुस्लिम नट लिखा था। उससे पूछने पर ज्ञात हुआ कि नाम बाप-दादा का रखा है। हम मुसलमान हैं। किन्तु जब पूछा गया कि, ''मुसलमान होने की पहचान क्या है?'' तो उसने कोई प्रतिउत्तर नहीं दिया। तो मेरी समझ और सर्वेक्षणों से यह साफ हो चुका है कि न केवल बिहार में बल्कि देश में नाम भर के मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। मुस्लिम अंगड़ी जाति हो या पिछड़ी जाति यह सबके लिए एक चेतावनी है कि उन्होंने जिस बेरहमी से अपनी मातृभाषा उर्दू, धार्मिक क्रिया-कलापों, संस्कारों, मान्यताओं, परंपराओं आदि को तिलांजलि देने का सिलसिला आरंभ किया है। इसके परिणाम बेहद घातक होंगे।यह एक शगूफा नहीं समझा जाए। ऐसे कई एक मुस्लिम पदाधिकारी नजरों के सामने हैं जो अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा से दूरी बढ़ाते दिख रहे हैं और ऐसे स्कूलों में शिक्षा दिलवा रहे हैं
जहां उनकी मातृभाषा की पढ़ाई नहीं होती है, जिसके स्थान पर उनके बच्चे हिन्दी और संस्कृत की पढ़ाई कर रहे हैं। ऐसे शिक्षित मुसलमानों से इस्लामी सभ्यता एवं संस्कृति की क्या रक्षा होगी? यह सोचें और गौर करें? हम किधर जा रहे हैं। भारत की धार्मिक जन सांख्यिकी पर शोध करने वाली संस्था इंडिया फर्स्ट फाउंडेशन, नई दिल्ली ने अपनी पुस्तक में ९६.५ प्रतिशत देशवासियों को हिंदू करार दिया है, जिसमें भारतीय धर्मानुयायी के रूप में मुसलमानों का प्रतिशत गायब है? जबकि इसी पुस्तक के एक अध्याय भावी प्रवृत्तियों का पूर्वानुमान के तौर पर स्पष्ट रूप से पृष्ठ २४ पर लिखा है, ''यदि अंतिम सौ वर्षों की प्रवृत्तियाँ भविष्य में भी बनी रहीं तो भारतीय धर्मानुयायियों का वर्ग निकट भविष्य में भारत में अल्पसंख्यक बन जाएगा।''उक्त संभावना व्यक्त करने के पीछे कई तथ्य सक्रिय रहे हैं। मसलन, देश में मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ी है और हिंदू दलित जातियों ने बड़े पैमाने पर ईसाई, इस्लाम धर्म स्वीकार किया है और ये अधिक कट्टरता प्रदर्शित करते दिखे हैं, जबकि सदियों से मुसलमान का चोला पहने भारतीय मुसलमान अपनी पहचान खोने लगे हैं। ये अस्तित्व संघर्ष की तीव्रता के कारण संभव हुआ है। असहाय, लाचार, गरीब, मुसलमानों की किसी को सुध लेने की फुर्सत नहीं है, प्रत्येक जाति-बिरादरी ने अलग-अलग खेमे और गुट बना रखे हैं और अपनों को लाभान्वित करने में ही सफलता देख रहे हैं।यह कटु सत्य है कि जो मुसलमान मस्जिद में कांधे से कांधा मिलाये नमाजें अदा करते दिखाई पड़ते हैं। वही मस्जिद की सीढ़ियां उतरे अनेक जातियों का चोला पहन लेते हैं। ऐसे व्यक्ति और संगठन दोनों ही समाज की विकलांगता को बढ़ावा देने के लिए उत्तरदायी कहे जाएगें।
जिन दलित मुसलमानों की चिंता सुविधा संपन्न मुसलमानों और उच्च जाति के लोगों को होनी चाहिए। वे ही उनको अपने सामने बराबरी का अधिकार देने से कतराते हैं। निम्नवर्गीय उत्पीड़ित, पद दलित मुसलमानों से भेदभाव और अलगाव का परिणाम यह निकला है कि पिछड़ी जातियां भी दूर से सलाम करने में कोताही बरतने लगी हैं। एक पिछड़ी जाति मोमिन (अंसारी) ने प्रत्येक स्तर पर अपनी सफलता के डे गाढ़ने में कामयाबी हासिल की, तो इसका कारण यह रहा है कि उनको अब्दुल क्यूम अंसारी जैसा रहनुमा मिला और इस बिरादरी ने कांग्रेस का विभाजन के समय साथ दिया, जबकि इदरीसी बिरादरी मोमिनों से अधिक आरक्षण का दावेदार होने के बावजूद उक्त सुविधाओं यानी आरक्षण और छात्रवृत्ति से वंचित रह गई तो महज इसलिए कि उनके पास कोई रहनुमा नहीं था और वे मुस्लिम लीग का समर्थन करने की भूल कर चुके थे। जिसका खमियाजा पचास से अधिक सालों तक भुगतना पड़ा। दूसरी ओर अपने कौम के लोग भी दलित मुसलमानों के लिए अधिक प्रयत्नशील नहीं दिखे। उनके सामाजिक आर्थिक, शैक्षणिक पिछड़ेपन को बरकरार रखने में भलाई देखी ताकि वे उच्च मुस्लिम जातियों के बन्धुआ बने रहें और उनकी जूतियां खाते और रोटियां चबाते रहें। इस सोच ने भी मुसलमानों का बहुत अहित किया है।एक और अपनों की साजिशें दूसरी ओर देश की बहुसंख्यक जाति के एक विशेष वर्ग द्वारा मुसलमानों को आर्थिक रूप से बाजार, व्यापार, कारोबार, उद्योग-धंधों में आगे नहीं निकलने देने की लगातार कोशिशें और ऊपर से दंगे-फसाद। यह दंगा भागलपुर के स्लिक उद्योग, मुम्बई के कारोबारियों और गुजरात के मुस्लिम उद्योगपतियों को काफी कमर तोड़ चुका है। कहने का अर्थ यह कि भविष्य में मुसलमानों को न केवल धार्मिक बल्कि शैक्षणिक एवं आर्थिक, सामाजिक स्तर पर भी एकजुटता दर्शाते हुए प्रयास करने होंगे। आपसी भेदभाव, ऊँच-नीच, जात-पात की लानत से मुक्ति हासिल करनी होगी वरना वह दिन दूर नहीं, जबकि मुसलमान अपने प्रति अपनाये गए अनेक स्तरीय उपेक्षाओं से तंगहाली, गरीबी और भेड़चाल से आजिज आकर कोई और धर्म स्वीकारने लगें। दलित मुसलमानों के आगे उपस्थित इस खतरे को समझना होगा और उनके सामाजिक, आर्थिक शैक्षणिक उत्थान एवं सम्मानजनक स्थिति के लिए प्रयास करने होंगे। तमाम सरकारी योजनाओं का पिछड़े मुसलमानों को शत-प्रतिशत लाभ मिले। यह हम सबको सुनिश्चित करते हुए, दूसरी मांगों की पूर्ति की कोशिश भी करनी पड़ेगी। क्योंकि एक मोमिन जाति को छोड़कर किसी अन्य आरक्षण प्राप्त जाति की स्थिति में अपेक्षित सुधार मुझे नहीं दिख रहा है, जैसा कि दिखाई देना चाहिए पूरे समाज को।
उल्लेखनीय है कि बिहार राज्य में मुसलमानों की कुल जनसंख्या १९९१ की जनगणना के अनुसार १४.८१ प्रतिशत है। इस आबादी का अधिकांश हिस्सा दलित, उत्पीड़ित, प्रताड़ित एवं आर्थिक रूप से पिछड़े मुसलमानों की है, जिसके लिए प्रत्येक चुनावी मौसम में प्रत्येक दल आश्वासनों की बरसात करते हैं और चुनाव जीतते ही सावन की बड़ी जेठ के सुखाड़ में तब्दील हो जाती है, चूँकि कुर्सी मिलने के बाद किसी को यह याद नहीं रहता कि उन्होंने जिस सीट पर विजय पताका फहरायी है। वहां के मुस्लिम गरीब मतदाताओं का विशेष योगदान रहा है। बिहार में ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहां किसी की जीत में मुस्लिम वोटरों की अत्यन्त अहम्‌ भूमिका होती है।गौरतलब है कि एम०वाई० समीकरण को यथार्थ घोषित करते हुए राजद की सरकार ने बरसों पूर्व राजभाषा विभाग, बिहार सरकार अन्तर्गत सहायक उर्दू अनुवादों की नियुक्ति के संबंध में तमाम प्रक्रियाएं पूरी करते हुए, सितम्बर, १९९५ में नियुक्ति की। कुल २५२ सहायक उर्दू अनुवादक राज्य के विभिन्न प्रखंडों से लेकर समाहरणालय तक नियुक्त हुए, जिसमें संभवतः देश के किसी राज्य में पहली बार किसी सरकार ने यह कदम उठाया। इसके साथ उर्दू अनुवादकों की नियुक्तियां भी समाहरणालय, अनुमंडल पदाधिकारी कार्यालय एवं कुछ एक जिलों के प्रखंडों में हुई, लेकिन इसके बाद आज तक इस विभाग के कर्मियों के भाग्य में समय से कभी वेतन मिलना नहीं दिखा। अनेक प्रयासों के बावजूद उर्दू कर्मचारियों के लिए पदोन्नति के मापदंड का निर्धारण नहीं हुआ, केन्द्र के अनुसार अनुवादकों को वेतनमान नहीं मिला।
यह जहां गए, उन्हें नकारा, निकम्मा और राजनीतिक अवसरवादिता की देन के रूप में मुफस्सिल के बहुत कम शिक्षित कर्मचारियों ने एक तुच्छ प्राणी के रूप में स्वीकार किया, अब यह अलग प्रश्न है कि आज परिस्थितिवश प्रखंडों में ये स्थापना से लेकर नजारत तक के प्रभार ढो रहे हैं। इस अवसर को अल्पसंख्यक संगठनों, नेताओं एवं मुस्लिम राजनीतिज्ञों ने पुनः भुनाने में गंभीर कोताही बरती। किन्तु मुसलमानों को आरक्षण देने के नाम पर होने वाले लाभों को देखकर ही पहले आंध्र प्रदेश फिर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने अपने एक बयान में कहा है कि उनकी सरकार मुस्लिमों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान करने की संभावनाओं का पता लगाएगी। जबकि बिहार विधान सभा - २००५ के आम चुनाव में एक दल मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग पर अड़ा है तो दूसरे दल अपने चुनावी दौरे पर हैलीकाप्टरों में मुस्लिम मौलानाओं और ओलेमाओं को साथ लिए फिर रहे हैं? अब कोई बताये कि इन ओलेमाओं के आम मुसलमानों ने क्या अपने जमीर का पेश इमाम बनाया है जो मुसलमानों के अधिकारों के संबंध में कहीं कुछ बोलते नहीं देखे जाते, बल्कि बिजूका बने हुए हैं। जाहिर है उनके इस कारनामों से उनको व्यक्तिगत लाभ हासिल हो जाए किन्तु आम मुसलमानों को क्या मिलेगा? क्या इन्हें पता नहीं कि यह माहौल सर्द पड़ते ही वे एक बार फिर हाशिये पर डाल दिये जाएंगे। जिस दुखड़े को गलियों से मस्जिद, हुजरे तक में रोते रहेंगे अगले चुनाव तक। आखिर ओलेमा या मुस्लिम सियासतदां किस मर्ज की दवा हैं? क्या इसके खिलाफ मुस्लिम बुद्धिजीवियों को सामने नहीं आना चाहिए? एक जाबिर हुसेन कितने मोर्चों पर लड़ेंगे? यह वोट बैंक और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का खेल आखिर कब तक?

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राही मासूम रजा विशेषांक प्रकाशित

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प्रताप दीक्षित : राही मासूम रजा की कहानियाँ: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर
राही मासूम रजा : एक जंग हुई थी कर्बला में
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राही मासूम रजा : फूलों की महक पर लाशों की गंध
राही मासूम रजा : रामायण हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की धरोहर है?
राही मासूम रजा : नेहरू एक प्रतिमा
राही मासूम रजा : शाम से पहले डूब न जाये सूरज
शिव कुमार मिश्र : राही मासूम रजा
कुरबान अली : हिन्दोस्तानियत का सिपाही
हसन जमाल : राही कभी मेरी राह में न थे
सग़ीर अशरफ़ : राष्ट्रीय एकता के सम्वाहकः राही
बाकर जैदी : राही और १८५७
मेराज अहमद : राही का रचनात्मक व्यक्तित्व
मूलचन्द सोनकर : रही मासूम रजा की अश्लीलता?
जोहरा अफ़जल : राही मासूम रजा और आधा गाँव
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सन्दीप कुमार : आधा गाँव एवं टोपी शुक्ला में साम्प्रदायिकता
कनुप्रिया प्रचण्डिया : राही और आधा गाँव
साक्षात्कार/यादें
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मेरे पहले राजनीतिक एवं साहित्यिक गुरु डॉ. रामविलास शर्मा : डॉ. शिव कुमार मिश्र

डॉ. सूर्यदीन यादव


आपकी इजाजत हो तो मैं इस साक्षात्कार की शुरुआत कुछ व्यक्तिगत प्रश्नों से करना चाहता हूँ।

पूछिए।

सबसे पहले आप अपने घर-परिवार तथा विद्यार्थी जीवन पर थोड़ा प्रकाश डालें, जैसे कि आपकी शिक्षा कहाँ और किन परिस्थितियों में हुई? आदि।

व्यक्तिगत जीवन और व्यक्तिगत जीवन संघर्षों के बारे में बात करने में मुझे हमेशा बहुत संकोच रहा है। आपने पूछा है, इस कारण केवल एक प्रश्न के अन्तर्गत ही इस बारे में मैं बात करूँगा। मेरे व्यक्तिगत जीवन में ऐसी कोई खास बात नहीं है, जिसको अलग से रेखांकित किया जाए। सामान्य निम्न मध्यम वर्ग के परिवार में जन्म हुआ। माता-पिता, दो बड़े भाई तथा दो छोटी बहनें, संयुक्त परिवार का यही रूप रहा। पिताजी डाकखाने के मुलाजिम थे। आर्थिक विपन्नता भले न हो, सम्पन्नता भी नहीं रही। भाइयों के विवाह हुए और इण्टरमीडिएट की परीक्षा देते ही मेरा अपना विवाह भी हो गया। जब सन्‌ १९५२ में मैंने एम.ए. पास किया, तब तक परिवार 17-18 सदस्यों का हो चुका था। इच्छा थी लखनऊ या इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने की, परन्तु आर्थिक साधन नहीं थे। कानपुर से ही सन्‌ ४६ में मैट्रिक, सन्‌ ४८ में इण्टरमीडिएट, सन्‌ ५० में बी.ए. तथा सन्‌ १९५२ में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर से लेकर एम.ए. तक कानपुर के डी.ए.वी. कालेज का छात्र रहा। १९५३ में एल.एल.बी. की परीक्षा भी वहीं से उत्तीर्ण की। तब तक मैं एक बेटी का पिता बन चुका था। संप्रति-मैं तीन बेटियों का पिता हूँ। तीन बेटियाँ अपने-अपने विषयों में पी-एच.डी. हैं, परन्तु सभी गृहणियाँ हैं। नौकरी किसी ने नहीं की। सब अपने-अपने घर-परिवार में सुखी हैं।इच्छा थी हिन्दी साहित्य में शोधकार्य करने की। परन्तु यह भी संकल्प था कि शोध या तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में करूँगा या आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी के निर्देशन में, जो उस समय हिन्दी के सबसे ख्यात आचार्य थे। किसी से भी व्यक्तिगत परिचय नहीं था। आर्थिक साधन ऐसे नहीं थे कि बनारस या सागर जाकर शोध कार्य करूँ। दोनों आचार्यों को पत्र लिखता रहता था, परन्तु उत्तर नहीं मिलते थे। सन्‌ १९५२ से ५६ तक का समय दूसरी उधेड़ बुन में बीता।कानपुर के परेड मार्केट में किताबों की एक प्रसिद्ध दुकान किताब घर के नाम से थी। उसके मालिक मेरे एक दूर के रिश्तेदार थे। वे प्रकाशक भी थे। एम.ए. में अध्ययन के दौरान और उसके बाद भी मेरा अधिक समय उनकी दुकान में ही बीतता था। वे मेरी परेशानी और मेरी इच्छा को जानते थे। उन्होंने मेरे सामने दो-एक छात्रोपयोगी पुस्तकें लिखने का प्रस्ताव किया, ताकि मैं कुछ कमा सकूँ और घर परिवार को सहयोग दे सकूँ। मैंने कुंजियाँ लिखने से साफ इंकार कर दिया। अन्ततः उनकी प्रेरणा से १९५३ में जयशंकर प्रसाद की कामायनी पर ढाई-तीन सौ पृष्ठों की एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी, जिसकी सामग्री का आधार वे नोट्स थे जो मैंने एम.ए. के अध्ययन के दौरान तैयार किये थे। साथ में कामायनी की टीका भी की, जिसका आधार उस समय प्रकाशित श्री विश्वंभर मानव की टीका थी। इसे संयोग कहें या मेरा भाग्य कि पुस्तक का पहला संस्करण एक वर्ष में ही बिक गया। लगभग ६०० रुपये रॉयल्टी के मिले, जो मैंने प्रकाशक के पास जमा कर दिये। सन्‌ १९५४-५५ में एक दूसरी पुस्तक बाबू वृन्दालाल वर्मा के उस समय तक प्रकाशित सारे ऐतिहासिक-सामाजिक उपन्यासों को केन्द्र में रखकर लिखी। यह पुस्तक भी तीन सौ पृष्ठों की थी। इसका पहला संस्करण भी एक वर्ष के भीतर बिक गया। जहाँ तक मेरी जानकारी है, बाबू वृंदावन लाल वर्मा के उपन्यास साहित्य पर हिन्दी में यह पहली पुस्तक थी। इसकी रॉयल्टी भी ६-७ सौ रुपये मिली। अब मेरे पास लगभग डेढ़ हजार रुपये थे। अब मैं बाहर शोध के लिये जा सकता था। पिताजी बहुत उदार मानस के थे। परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्होंने मुझे आश्वस्त किया और मुझे आशीर्वाद दिया। ये दोनों पुस्तकें मैंने उस समय के ख्यात सभी विद्वानों को भेजी थीं, जिनके पत्रभी मिले थे। उन विद्वानों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और आचार्य वाजपेयी जी भी थे। अकस्मात सन्‌ १९५६ में आचार्य वाजपेयी का एक कार्ड मुझे मिला कि मैं उनसे सागर में मिलूँ। मैं तत्काल सागर पहुँचा और उन्होंने मुझे अपने निर्देशन में शोध करने की अनुमति दे दी। दो वर्षों तक अपने कमाये कुछ पैसों के आधार पर शोध कार्य चला। बीच में आचार्य वाजपेयी ने एक प्रोजेक्ट के तहत कुछ आर्थिक सहायता दी और मेरा कार्य निर्विहन पूरा हो गया। मैं आचार्य वाजपेयी जी का स्नेह भाजन तो बना ही, सन्‌ १९५९ में सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मेरी नियुक्ति भी हो गई। यह है मेरे इस समय तक के जीवन की संक्षिप्त कथा। जैसा मैंने कहा कि इसमें ऐसा कुछ भी खास नहीं, जो मेरे जैसे तमाम दूसरे लोगों के जीवन में घटा हो।


मार्क्सवाद की ओर झुकाव कब और कैसे हुआ?

कानपुर के जिस मुहल्ले में मेरा बचपन बीता, मैंने बचपन से ही मजदूरों के जुलूसों का एक सिलसिला देखा। कानपुर एक औद्योगिक शहर है। मजदूर हड़ताल करते, जुलूस निकालते, बड़ी-बड़ी सभाएँ होतीं, मेरे मन पर शुरुआती दौर में इन सब बातों का सघन प्रभाव रहा। सन्‌ १९६४ में मैट्रिक पास कर डी.ए.वी. कालेज में इण्टर का छात्र बना और उसी समय छात्रों की वामपंथी राजनीति से जुड़ गया। कालेज में छात्रों के तीन संगठन थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, कांग्रेस की स्टूडेंट्स, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी का आल इण्डिया स्टूडेंट्स फेडरेशन। कालेज में इंटर से एम.ए. तक सबसे मेधावी छात्रों का संबंध फेडरेशन से था। मेरा संपर्क भी फेडरेशन के छात्रनेताओं से हुआ और मैं उनके गोल में शामिल हो गया। बीच-बीच में परेड स्थित कामरेड पार्टी के दफ्तर के चक्कर भी लगाने लगे। इसी बीच यशपाल के उपन्यास और राहुल सांकृत्यायन की किताबें भी पढ़ीं, जिनके जरिये भी मार्क्सवाद को जाना समझा। जैसे-जैसे आगे की कक्षाओं में बढ़ता गया, अंग्रेजी में प्रकाशित मार्क्सवादी साहित्य की पुस्तकें भी पढ़ीं। जब एम.ए. में था तभी सन्‌ १९५२ में प्रगतिशील लेखक संघ के किसी कार्यक्रम में डॉ. रामविलास शर्मा कानपुर आये थे। कानपुर के प्रगतिशील साथियों ने उनसे मेरा परिचय कराया और उनका स्नेह भी मुझे मिला।सन्‌ १९५२ से ५६ तक जब मैं सड़कों पर था, प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया और इसी दौर में मार्क्सवाद का जितना अध्ययन कर सकता था किया। डॉ. रामविलास शर्मा से पत्राचार भी इसी समय से प्रारम्भ हुआ। वे मेरे राजनीति और साहित्य के पहले गुरु हैं। सन्‌ १९५३ में कानपुर की स्टूडेन्ट फेडरेशन की इकाई का अध्यक्ष भी रहा और प्रगतिशील लेखक संघ में मेरी सक्रियता तो थी ही। कानपुर के उस समय के ख्यात प्रगतिशील लेखकों और विचारकों से घनिष्ट संबंध भी बने, जिनमें श्री शिव वर्मा और शीलजी मुख्य हैं।आपके गुरुजी, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी भिन्न विचारों और संस्कारों के व्यक्ति थे। फिर भी आप उनके प्रियपात्रकैसे बन गये। उनके साथ आपने कैसे निभाया।आचार्य वाजपेयी के पास मैं सन्‌ १९५६ के अंत में गया और जैसा मैं कह चुका हूँ कि इससे पहले सन्‌ १९५२ में रामविलास शर्मा जी से मेरी भेंट हो चुकी थी। पत्राचार भी शुरू हो गया था और उनसे दो-तीन बार मिल भी चुका था। आचार्य वाजपेयी से मिलने सागर जाने से पहले मैं डॉ. रामविलास शर्मा से मिला भी था और उन्हें अपने सागर जाने की बात बता दी थी। वे आचार्य वाजपेयी के गाँव-घर के पास के रहने वाले थे ही, उनके कर्म विचारों और उनके साहित्य से भली-भाँति परिचित भी थे तथा उनके मन में आचार्य वाजपेयी के प्रति आदर का भाव भी था। उन्होंने मुझे आश्वत किया था कि जनतांत्रिक सोच के आचार्य वाजपेयी के निर्देशन में निर्विहन अपना शोधकार्य कर सकूँगा।लगभग एक वर्ष तक मैंने अपनी वैचारिक आस्थाओं और रामविलास जी से अपने संबंधों के बारे में नहीं बताया। जब मुझे विश्वास हो गया कि मैं स्नेह भाजन बन चुका हूँ, मैंने उन्हें सब कुछ बताया। उन्होंने मेरी बातें ध्यान से सुनी और मुझे अपने अन्तर्गत शोध की अनुमति दे दी। उन्होंने मुझसे कहा : डॉ. रामविलास शर्मा मेरे मित्र हैं और साहित्य और जीवन में प्रगतिशील विचारों का मैं हमेशा समर्थक रहा हूँ। प्रगतिशील लेखक संघ की काशी इकाई का अध्यक्ष भी मैं रहा हूँ और मार्क्सवाद की शक्ति तथा सीमाओं, दोनों का मुझे बोध है। तुम्हें जो विषय दिया गया है, उस पर कार्य करो और सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दो।''सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मेरी नियुक्ति तो हुई ही। जब तक आचार्य वाजपेयी जीवित रहे, मैं उनकी सघन आत्मीयता के दायरे में रहा। शोध के दौरान उन्होंने कभी भी मुझे विचार के स्तर पर दबाने की कोशिश नहीं की। हाँ, मेरे अतिवादी आग्रहों को जब-तब संतुलित जरूर किया। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है। कुछेक गहन संकटों के क्षण में, मसलन सन्‌ १९६२ में चीनी आक्रमण के समय जब कम्युनिस्टों की व्यापक धरपकड़ हो रही थी, उन्होंने एक रात मुझे बुलाया और कहा कि उन्हें स्थानीय खुफिया विभाग से सूचना मिली है कि किसी ने मेरे बारे में कुछ लिखकर भेजा है। मेरे परिवार की देखरेख की पूरी जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने मुझे १५ दिनों के लिए कहीं बाहर चले जाने जाने के लिए कहा। बाद में उनका संदेश पाकर मैं सागर लौटा, तब तक संकट के बादल छट चुके थे। उन्होंने मुझसे यहाँ तक कहा था कि यदि तुम गिरफ्तार हो जाते हो, तो मैं अदालत में तुम्हारी जमानत लूँगा। ऐसे उदार गुरु को क्या कोई कभी भूल सकता है।आचार्य वाजपेयी निश्चय ही रोमानी मनोभूमि के समीक्षक विचारक थे। कई मुद्दों पर मार्क्सवाद से उनकी असहमति थी। परंतु वे निहायत जनतांत्रिक सोच के व्यक्ति थे। मेरी उनसे अनेक बार लंबी बहसें हुईं। तब मेरे साथ मेरे मार्क्सवादी साथी चंद्रभूषण तिवारी भी हुआ करते थे, जो आचार्य वाजपेयी के ही निर्देशन में शोधकार्य कर रहे थे। जो स्नेह आचार्य वाजपेयी का मुझे मिला और जो उनके बारे में मेरे अनुभव हैं, वही चन्द्रभूषण तिवारी के भी थे। आचार्य वाजपेयी की मनोभूमि पर उस समय हम लोग छाए हुए थे बहसें होती थीं, वैसी ही, जैसी गुरु-शिष्य के बीच में होती हैं या होनी चाहिए। आचार्य वाजपेयी के नियंत्राण पर डॉ. रामविलास शर्मा, नागार्जुन, राहुल जी, केदारनाथ अग्रवाल सभी सागर आये। मेरा मानना है कि कुल मिलाकर वाजपेयी के विचार मार्क्सवाद-विरोधी नहीं हैं। यद्यपि जैसा मैंने कहा कि कुछ मुद्दों पर उनकी असहमतियाँ जरूर रहीं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उनके बारे में मुझसे जो कुछ भी कहा था, वह एकदम सत्य था। उन्होंने मुझसे एक बार यह भी कहा था कि तुम लोग वाजपेयी जी को मार्क्सवादी बनाने का उपक्रम न करना। वे जैसे हैं, उसी रूप में हमारे मद्दगार हैं। उनके विचारों का इस्तेमाल करो। रामविलास जी की सलाह को मैंने बराबर ध्यान में रखा और आचार्य वाजपेयी के साथ अंत तक जुड़ा रहा और आज भी मेरे मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा है। आज मैं जो कुछ हूँ, मेरे निर्माण में उनका बहुत योगदान है।


आप मार्क्सवादी हैं, धर्म को आप किस रूप में लेते हैं?

मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक विचारधारा है, जिसका संबंध दर्शन की भौतिकवादी शाखा से है। मार्क्स ने इस दार्शनिक भौतिकवाद को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का रूप दिया। दर्शन की यह भौतिकवादी शाखा संसार के कर्ता या कारण के रूप में किसी भी परम सत्ता को स्वीकार नहीं करती। इसके लिए प्रकृति ही एक मात्र सत्य है, जो अनादि और अनंत है। जहाँ तक धर्म का सवाल है, धर्म एक मिथ्या चेतना है, जिसे मार्क्स ने जनता के लिए अफीम कहा है। मार्क्स की इस उक्ति को बहुत विज्ञापित किया गया है, जबकि अपनी व्याख्या में मार्क्स ने धर्म के बारे में कुछ और बातें भी कहीं हैं। वस्तुतः धर्म जब संस्थागत बनता है, उसका मतवाद खड़ा होता है, उसमें तरह-तरह के कर्मकांड जुड़ते हैं। मार्क्सवादी धर्म से जुड़े इन पाखंडों और मिथ्या विचारों का विरोध करते हैं। धर्म अपने बुनियादी रूप में कर्तव्य का, ईमानदार, मेहनत और मशक्कत की कमाई का पर्याय है। संतों ने धर्म के इसी रूप को माना और ग्रहण किया है। उससे जुड़े पाखंडों की धज्जियाँ उड़ाई हैं। धर्म के नाम पर मनुष्यता का जितना रक्त बहा है, उतना युद्धों और महायुद्धों में भी नहीं बहा है। धर्म के बारे में मेरा यही अभिमत है कि उसे कर्तव्य और सेवा के रूप में स्वीकार किया जाए।लोगों में एक यह भी धारणा है कि मार्क्सवाद परंपरा का विरोधी है।मार्क्सवाद के बारे में लोगों की यह धारणा निहायत भ्रांत धारणा है। यद्यपि यह भी सच है कि हिन्दी के कुछेक मार्क्सवादी माने जाने वाले रचनाकारों और विचारकों ने इस तरह की भ्रांत धारणा के लिए उन्हें मौका दिया है। मार्क्सवाद से परिचित, विशेषकर मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन आदि के लेखन को जिन्होंने सही ढंग से पढ़ा है वे स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे कि परंपरा के बारे में मार्क्सवाद पर लगाया गया यह आरोप एकदम गलत है। मार्क्सवादी विचारकों ने यह कहा है कि परंपरा में जो कुछ प्राणवान और ऊर्जामय होता है, वह आगे के विकास का हिस्सा बनता है, और जो निष्प्राण और रुढ़िबद्ध होता है, वह अपने समय में ही खप जाता है। परंपरा के जीवंत तत्त्वों के विकास का हिस्सा बनाने और उससे प्रेरणा लेने की बात ही सही मार्क्सवादी दृष्टि है। मार्क्स, एंगेल्स एवं लेनिन का लेखन स्वतः इसका प्रमाण है। हिन्दी में शुरुआती दौर में कुछ प्रगतिशीलों के लेखन से इस प्रकार की ग्रंथियाँ जरूर फैलीं, परंतु बाद में स्थिति सामान्य हो गई। डॉ. रामविलास शर्मा की किताब का नाम ही परंपरा का मूल्यांकन शीर्षक से है, जिसमें उन्होंने कहा है कि बिना परंपरा को जाने हम विकास की दिशाएँ निर्धारित नहीं कर सकते हैं। हाँ, मार्क्सवाद का यह आग्रह जरूर है कि परंपरा के प्रति हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो, विवेकपूर्ण हो। परंपरा की पूजा नहीं, उसका विवेक परक अध्ययन होना चाहिए और इस विवेक के तहत उसके संप्राण तत्त्वों की खोज करते हुए आगे के विकास में उनका इस्तेमाल होना चाहिए।प्रगतिशील विचारधारा के होते हुए भी आपने भक्तिकाल के पक्ष में बहुत कुछ लिखा है; जबकि कई बड़े प्रगतिशील विद्वानों ने भक्तिकाल को खारिज करने की हद तक उसकी आलोचना की है।डॉ. रामविलास शर्मा की अपने समकालीनों - खासतौर से शिवदान सिंह चौहान, यशपाल, भदंत आनंद कौशल्यायन, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन आदि से जो वैचारिक भिड़ंत हुई और जिसे लेकर कुछ लोग आज भी डॉ. रामविलास शर्मा को दोषी करार दे रहे हैं, उसके मूल में भक्तिकाल-विशेषकर गोस्वामी तुलसीदास को लेकर व्यक्त किये गये उपर्युक्त रचनाकारों - विचारकों और समीक्षकों के विचार ही हैं। परंपरा के वैज्ञानिक मूल्यांकन की बात मैंने ऊपर की है; इन लोगों के इन विचारों में उसी का निषेध है। के. दामोदरन ने अपनी पुस्तक में स्पष्टतः भक्ति आन्दोलन पर लिखते हुए उसके सकारात्मक पहलुओं को जिस तरह विशद् किया है उससे बात साफ हो जानी चाहिए। मेरे अध्ययन का क्षेत्र आधुनिक साहित्य रहा है। भक्ति काल और भक्ति कवियों की और मेरी समज्ञ परंपरा के बारे में मार्क्सवादी विचारों के आलोक में ही हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि मध्यकाल में अनेक ज्वलंत सामाजिक विषयों पर भक्ति के आवरण में ही उसके रचनाकारों और विचारकों ने विचार किया है, जिन्हें हमें संजीदगी से पढ़ना चाहिए। भक्तिकालीन रचनाओं और रचनाकारों में विचारगत अन्तर्विरोध हैं; परंतु उनके साहित्य में ऐसा भी बहुत कुछ है, जो सामंती मूल्यों के विरोध में है, जनता के पक्ष में है और जो हमारे आज के रचनाकारों के लिए भी एक मिसाल है। यदि हम परंपरा को सही रूप से मार्क्सवादी विचारों के अनुरूप समझते हैं तो हमें निश्चय ही ऐसा बहुत कुछ प्राप्त होता है, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणा है; हमारी विरासत है।आप अपने तमाम लेखन में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रति बहुत उदार दिखाई पड़ते हैं। इस विषय पर कुछ कहिए।मेरी दृष्टि में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पहले भी आधुनिक हिन्दी समीक्षा की वृहद्त्रायी के पहले व्यक्ति रहे हैं और आज भी हैं। उनके समीक्षात्मक अवदान से जो लोग ठीक से परिचित हैं, वे इस बात की ताईद करेंगे कि आचार्य शुक्ल ने अपने लेखन से हिन्दी समीक्षा को ऐसा सुदृढ़ वैचारिक आधार प्रदान किया है, सिद्धान्त और व्यवहार दोनों आयामों पर कि उसकी मिसाल नहीं है। आचार्य शुक्ल के विचार बड़ी दूर तक साहित्य और कला के विषय में मार्क्सवादी विचारों की संगति में हैं। यद्यपि आचार्य शुक्ल को मैं न तो मार्क्सवाद के दायरे में लाने का पक्षधर हूँ और न दार्शनिक भौतिकवाद के दायरे में। वे जैसे हैं, और जो हैं, हमारे लिए इसी रूप में बेहद उपयोगी हैं। कविता की उनकी समझ और उसके बारे में उनके विचारों और व्यवहारिक विश्लेषण का मैं दूर तक कायल हूँ। उनका बुद्धिवाद उनकी लोकवादी आस्था उनके अध्ययन का फलक मुझे बराबर उनकी ओर आकर्षित करता रहा है। अब तो उनकी पुस्तक चिन्तामणि के चार भाग सामने आ चुके हैं और परवर्ती जागीर में ऐसी कुछ नयी सामग्री संकलित है, जो उन तमाम भ्रांतियों का निराकरण करती है, जिन्हें उनके आरंभिक लेखन में इंगित करते हुए उन पर वर्णवादी, ब्राह्मणवादी होने जैसे आरोप लगाए गए हैं, और उन्हें साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि का पोषक बताया गया है।वस्तुतः शुक्ल जी जीवन भर विचारगत आत्म-संघर्ष से गुजरे हैं और आगे चलकर उन्होंने स्वयं अपने पिछले तमाम विचारों को छोड़ा है। जरूरत उनके निहायत वस्तुनिष्ठ और पूर्वाग्रह रहित अध्ययन की है। रहस्यवाद, कलावाद, रीतिवाद आदि का उनका विरोध निहायत तर्क संगत एवं वैज्ञानिक है। जहाँ तक मैं समझता हूँ हमारी समीक्षा में विचारों के स्तर पर उनकी वही भूमिका और उनका वही महत्त्व है, जो रूस में मार्क्सवाद के आने के पहले बेलिन्सकी चेर्नीशेव्स्की, दोब्रोल्यूबोव जैसे विचारकों का था। वे हमारी विरासत हैं और रहेंगे। उनकी विचारगत असंगतियाँ होंगी और हैं; परंतु वे हमारे वैचारिक सरोकारों के अनेक आयामों पर प्रेरणा-स्रोत हैं।


डॉ. रामविलास शर्मा से आप खुद को किन रूपों में प्रभावित मानते हैं।

मैं बता चुका हूँ कि डॉ. रामविलास शर्मा से मैं १९५२ से परिचित हूँ। तब से उनके जीवन पर्यन्त मेरे और उनके संबंध बने रहे। जिस समय मैं कानपुर में सन्‌ १९५२ से ५६ के बीच, प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों में शरीक था, प्रगतिशील समीक्षक के रूप में रामविलासजी शीर्ष पर थे। मैं जब भी उन्हें पढ़ता, उनकी विवेचन शैली और तर्कों से बेहद प्रभावित होता। कालान्तर में उनके विचारों और उनकी समीक्षा की कुछ सीमाएँ भी मेरे सामने स्पष्ट होती गयीं, परन्तु कुल मिलाकर उनके वैदुष्य का प्रभाव मेरे ऊपर बना रहा। मैंने उनके अतिवादी आग्रहों तथा उनकी दीनार सीमाओं से अपने को बचाते हुए, उनमें जो कुछ ठोस और सकारात्मक था, उससे अपना संबंध जोड़ा, उनका स्नेह-भाजन बनकर मैंने उनसे लंबी बहसें भी की। उनके जीवनकाल में उनके कुछ विचारों से असहमत होते हुए मैंने लिखा भी और उनसे बातें भी कीं। मेरे बहुत से तर्कों को उन्होंने माना भी। बावजूद इसके मैंने उनकी समीक्षा से और उनके सानिध्य से बहुत कुछ पाया है। आचार्य वाजपेयी के साथ वे भी मेरी मनोभूमि में हमेशा गुरु के रूप में विद्यमान रहे। स्पष्ट और पारदर्शी भाषा में जटिल से जटिल विषय को सरल बनाकर लिखने की तमीज मैंने उनसे ही सीखी।मुक्तिबोध के बारे में आपका जो नजरिया है, उसे थोड़ा स्पष्ट करें।जब मैं सागर में शोध कार्य कर रहा था, मुक्तिबोध सागर विश्वविद्यालय की सेनेट के सदस्य थे, जिसकी बैठकों में वे प्रतिवर्ष आते थे। सागर के कुछ प्रबुद्ध छात्र, जिनमें आज के ख्यात अशोक वाजपेयी भी हैं, उनसे अंतरंग रूप से जुड़े हुए थे। मैं आचार्य वाजपेयी का शोध छात्र था और आचार्य वाजपेयी उस समय नयी कविता-विरोधी के रूप में विज्ञापित किये जा चुके थे। मुक्तिबोध जब भी आते, कोई न कोई विचार गोष्ठी जरूर होती, जिसमें मैं भी शामिल होता। मेरी मुक्तिबोध जी से अंतरंगता नहीं बढ़ सकी; फिर भी मैंने जितना संभव था, मुक्तिबोध को पढ़ा और ऐसे कुछ लोगों से, जो जितने अंतरंग मुक्तिबोध से थे, उतने ही मेरे, मुक्तिबोध के बारे में और भी बहुत कुछ जाना। ऐसे लोगों में एक श्री हरिशंकर परसाई थे। बहरहाल, जैसे मैं मुक्तिबोध को पढ़ता गया, उनसे प्रभावित भी हुआ वे हमारे समय के बड़े ईमानदार, बौद्धिक रचनाकार थे। कालांतर में जब मुक्तिबोध को कुछ लोगों ने एक मिथ बनाकर पेश करना शुरू किया, मेरी उनसे असहमतियाँ बनी और मैंने बराबर उसका विरोध किया। मैंने मार्क्सवाद को जितनी दूर तक जाना समझा है, मैं बराबर इस विचार का रहा हूँ कि किसी भी रचनाकार - विचारक की देवमूर्ति नहीं गढ़नी चाहिए। जबकि मुक्तिबोध को लेकर कुछ लोगों का पहले भी ऐसा ही प्रयास था और आज भी है। मेरा हमेशा से यह विचार रहा है कि हर रचनाकार के अपने अन्तर्विरोध भी होते हैं, जिनसे वह आजीवन जूझता-टकराता है। जरूरत उन अन्तर्विरोधियों को पहचानते हुए उनके बीच से उनकी शक्ति को पहचानने और उजागर करने की है; न कि अन्तर्विरोधों को ढकते हुए अंधभाव से उसे पूजने की। दुर्भाग्य से मुक्तिबोध को लेकर कुछ लोग ऐसा ही कर रहे थे। वे मुक्तिबोध पर किसी भी तरह का प्रश्न चिद्द सहन नहीं कर पाते। मेरी दृष्टि में यह नजरिया सही नहीं है। डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध के बारे में जो स्थापनाएँ दी हैं, मुक्तिबोध के तथाकथित प्रशंसकों ने रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को न केवल खारिज किया है, उन्हें मुक्तिबोध विरोधी भी घोषित किया है। जहाँ तक रामविलास शर्मा की स्थापनाओं और निष्कर्षों का सवाल है, उनमें अतिरंजना हो सकती है, परंतु मेरा यह विश्वास है कि रामविलास शर्मा का मुक्तिबोध संबंधी लेखन मुक्तिबोध-विरोधी लेखन नहीं है, वह हमें मुक्तिबोध को समझने में मद्द देती है। उन्होंने मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष को एकदम सही रूप में पहचाना है। उनके अनुसार मुक्तिबोध की सबसे बड़ी समस्या मार्क्सवाद से अपने जीवन, अपने व्यवहार और अपनी रचनाशीलता का संबंध बिठाने की थी। वे मार्क्सवाद को जीना चाहते थे; जबकि उनके मध्यवर्गीय संस्कार उनके आड़े आते थे। वे जीवनभर इस आत्मसंघर्ष को जीते रहे। उनकी बुनियादी समस्या थी, मध्यवर्ग व्यक्तित्वांतरित होकर किस तरह सर्वहारा हो सकता है। मार्क्सवाद उनके लिए, जैसा कि रामविलास जी ने कहा है; जीवनमरण का प्रश्न था। वे उससे हट नहीं सकते थे और उनके मन में जो तरह-तरह के सवाल उठते थे, उन सबका जवाब वे मार्क्सवाद से नहीं पा रहे थे। इसी उधेड़ बुन में वे, योग, रहस्य, तंत्र और न जाने किन-किन विचारकों के विचारों में गोते लगाते थे। मेरे विचार से निहायत प्रतिबद्ध और ईमानदार मार्क्सवादी होते हुए भी उनके विचारों में कुछ ऐसे अवकाश हैं, जिनके नाते कट्टर से कट्टर मार्क्स-विरोधी भी उन्हें अपनी शर्तों पर, अपने तर्कों की जमीन पर व्याख्यायित करते हुए आधुनिक हिन्दी का शीर्ष रचनाकार सिद्ध कर ले जाते हैं। इसके माने हैं कि मुक्तिबोध में ऐसा कुछ है, जो दूसरों को उन्हें अपने ढंग से व्याख्यायित करने की छूट देता है। मेरा कहना है कि हम मुक्तिबोध की विचारगत असंगतियों को नजर-अंदाज न करें, उन्हें पहचाने और उनसे सीख लें तथा उनमें जो ताकत है, उसे अपनी विरासत माने और उससे प्रेरणा लें। उनकी या किसी की देवमूर्ति न गढ़ें। अपने इन विचारों के साथ निश्चय ही मुक्तिबोध को अपने समय का बहुत जरूरी और बहुत महत्त्वपूर्ण रचनाकार मानता हूँ। बातें बहुत-सी हैं, जिन्हें मैंने लिखी भी है, फिलहाल इतना ही।इस समय चर्चा के केन्द्र में जो दो विषय हैं - दलित-विमर्श तथा नारी-विमर्श, उनकी दिशा और दशा पर थोड़ा प्रकाश डालें।दलित और स्त्री, वस्तुतः हमारी सामाजिक संरचना में सबसे अधिक सताए हुए हैं। इस विषय पर मैंने अन्यत्रविस्तार से लिखा है और कहा है कि हमारी सामाजिक संरचना में उन्हें सच पूछा जाए तो नरक की नियति दी गई है। अपनी साहित्यिक परंपरा को देखें और यथास्थितिवादियों की बात छोड़ दें, तो संवेदनशील रचनाकारों ने और उदार मन के मानवतावादी विचारकों ने इस स्थिति पर बराबर लिखा है और बराबर चिंता जताई है, परन्तु कुल मिलाकर इनके प्रति उनका दृष्टिकोण सहानुभूतिपरक और मानवीय करुणा से परिचालित ही रहा है जिस सामाजिक संरचना के ये शिकार हैं; उसके खिलाफ आवाजें या तो उठी ही नहीं या एक सुधारवादी मानसिकता के तहत सामाजिक विसंगतियों पर रंग-रोगन चढ़ाकर उस इमारत को दुरुस्त बनाने की बातें ही की गई हैं। मध्ययुग के निर्गुण संतों के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो समूचे भारतीय साहित्य में लंबे समय तक किसी दलित के बड़े रचनाकार के रूप में सामने आने का उदाहरण नहीं मिलता। यह बात स्त्री के संदर्भ में भी उतनी ही सही है।आधुनिक युग में खासतौर से, नवजागरण काल से स्थितियों के बदलने के क्रम में स्त्रीऔर दलित-अस्मिता के सवाल कुछ उभरकर सामने आए। आजादी के बाद दलित और स्त्री अस्मिताएँ कुछ तो बदली हुई परिस्थितियों के नाते और कुछ पश्चिमी जगत्‌ में, खासतौर से स्त्री विषयक मुद्दों के उभरने के नाते अधिक प्रखर होकर सामने आईं। आज नई सदी में, हमारे प्रमुख साहित्यिक विमर्शों में स्त्री और दलित विमर्श हैं। जैसा मैंने कहा, मैंने इन दोनों मुद्दों पर थोड़ा-बहुत लिखा है, जो प्रकाशित है। संप्रति बहुत संक्षेप में बात करना चाहूँगा। पहले स्त्रीविमर्श को लें। स्त्री लेखन और स्त्री-विमर्श के नाम पर जो कुछ लिखा और कहा गया है उससे बुनियादी तौर पर सहमत होते हुए संप्रति मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि स्त्री लेखन और स्त्री-विमर्श का दायरा व्यापक हो और उसमें उस स्त्री को भी शामिल किया जाए जो गाँवों, कस्बों और दूर-दराज के अंचलों में हाशियों की जिन्दगी जी रही है। अभी स्त्री लेखन का अधिकांश मध्यवर्गीय दायरे में है, उसे बढ़ाया जाए। दूसरी बात, जरूरी है कि जो हजारों सालों के जड़ संस्कारों को ढोते हुए गुलामी में ही सुख का अनुभव कर रही है। अपने तन और मन पर पुरुष द्वारा अंकित सैंकड़ों निशानों को लिए हुए, उसी के कंधों पर चढ़ाकर परलोक जाना चाहती है। स्त्री-अस्मिता का एक शत्रु सामने है - पितृ सत्तात्मक सामाजिक संरचना, पुरुष दर्प आदि; परंतु उसका एक शत्रु जड़ संस्कारों के रूप में खुद स्त्री के भीतर है, जिससे पुरुष की सहायता से स्त्रीको अपने भीतर लड़ना है। स्त्री-मुक्ति का सवाल स्त्री-जाति की मुक्ति का सवाल है और मुक्ति जब भी होगी, सबकी होगी और एक बार में होगी। स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन में जब तक यह बात शामिल नहीं होती, स्त्री-मुक्ति के कोई मायने नहीं दिखाई देते। एक और बात, स्त्री मुक्ति का प्रश्न उपन्यास, कहानियों से आगे सामाजिक जीवन की सच्चाई बने। स्त्री-मुक्ति का तभी कोई अर्थ है और वह कार्य हड़बड़ी से नहीं हो सकता है। इस अभियान को बहुत संजीदगी से आगे चलना चाहिए।इसी तरह दलित-विमर्श के बारे में भी मेरे जो कुछ विचार हैं, वे मेरे अनेक लेखों में विस्तार के साथ आ चुके हैं। मराठी के दया पवार से मेरे घनिष्ट संबंध रहे हैं और लंबी बातचीत भी रही है। हिन्दी के भी ओमप्रकाश वाल्मीकि तथा सूरजपाल चौहान जैसे दलित लेखकों से मेरे अच्छे संबंध और पत्राचार भी है। जिस तरह मुझे इस बात की खुशी है कि आज स्त्रीअपनी कलम से, अच्छी भाषा में अपने मन की बात लिख रही है, उसी तरह मुझे इस बात की भी खुशी है कि जिन लोगों के लिए हमारी सामाजिक संरचना के विधाताओं ने हमेशा-हमेशा के लिये पढ़ने-लिखने और सोचने के क्षेत्र निषिद्ध करार दिये थे, आज वे दलित अपनी कलम से अपनी भाषा में अपने मन की बात लिख रहे हैं और उस तरह से ही हमें रू-ब-रू कर रहे हैं, जिसे सदियों से वे सहते और भोगते आ रहे हैं, जहाँ तक दलित लेखन का सवाल है, उसके जरिये हिन्दी में पहली बार कुछ अछूते अनुभव-संवेदन हमारे साहित्य में आए हैं। दलित लेखकों की आत्मकथाओं ने और कहानियों ने निश्चित रूप से हिन्दी आत्मकथा और कथा-साहित्य को समृद्ध किया है। जहाँ तक वैचारिक लेखन का प्रश्न है, कुछ ऐसे मुद्दे जरूर उभरे हैं, जिन्हें लेकर अब तक दलित लेखकों और उनके समर्थक गैर-दलित रचनाकारों और विचारकों में आम सहमति नहीं बन सकी है। जहाँ तक मेरा विचार है पारस्परिक संवाद जरूरी है और यह भी जरूरी है कि रूढ़िवादिता और दुराग्रहों से अलग संजीदगी से इस संवाद को जारी रखा जाए ऐसे तत्त्व भी हैं जो बजाय इसके कि संवाद को जारी रखने में मद्द दे, चाहते हैं कि सब कुछ उन्हीं की शर्तों पर तय हो। संवाद का यह नजरिया सही नहीं है। मैंने इस विषय पर काफी लिखा है। जरूरी है कि दलित और उनके समर्थक गैर-दलित लेखक-विचारक अपने पूर्वग्रहों को छोड़ें, अपने अंतर्विरोधों के प्रति सजग हों, और मिल-जुलकर उस व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़े हों, जो यथास्थिति बनाए रखना चाहता है। किसी भी ओर से उपक्रम न हों, जो संवाद धर्मिता को क्षति पहुँचाए। ऐसे उपक्रम इस बीच हुए हैं, जो सही नहीं हैं जो संवाद को विवाद में बदलना चाहते हैं। दलित-मुक्ति का सवाल हो अथवा दलित-अस्मिता की बहाली का सवाल हो, इसे मिल-जुलकर ही उन लोगों के जरिये सुलझाया जा सकता है, जो यथास्थितिवादियों और कट्टरपंथियों के विरोध में मुद्दे पर एक मत हैं।

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