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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, January 31, 2009

स्वप्न

डा. महेंद्रभटनागर,



पागल सिरफिरे
किसी भटनागर ने
माननीय प्रधान-मंत्री .. की
हत्या कर दी,
भून दिया गोली से!!

ख़बर फैलते ही
लोगों ने घेर लिया मुझको -
‘भटनागर है,
मारो ... मारो ... साले को!
हत्यारा है ... हत्यारा है!’

मैंने उन्हें बहुत समझाया
चीख-चीख कर समझाया -
भाई, मैं वैसा ‘भटनागर’ नहीं!
अरे, यह तो फ़कत नाम है मेरा,
उपनाम (सरनेम) नहीं!

मैं
‘महेंद्रभटनागर हूँ,
या ‘महेंद्र’ हूँ
भटनागर-वटनागर नहीं,
भई, कदापि नहीं!
ज़रा, सोचो-समझो।

लेकिन भीड़ सोचती कब है?
तर्क सचाई सुनती कब है?
सब टूट पड़े मुझ पर
और राख कर दिया मेरा घर!!

इतिहास गवाही दे —
किन-किन ने / कब-कब / कहाँ-कहाँ
झेली यह विभीषिका,
यह ज़ुल्म सहा?
कब-कब / कहाँ-कहाँ
दरिन्दगी की ऐसी रौ में
मानव समाज
हो पथ-भ्रष्ट बहा?

वंश हमारा
धर्म हमारा
जोड़ा जाता है क्यों
नामों से, उपनामों से?
कोई सहज बता दे —
ईसाई हूँ या मुस्लिम
या फिर हिन्दू हूँ
(कार्यस्थ एक,
शूद्र कहीं का!)
कहा करे कि
‘नाम है मेरा - महेंद्रभटनागर,
जिसमें न छिपा है वंश, न धर्म!’
(न और कोई मर्म!)

अतः कहना सही नहीं -
‘क्या धरा है नाम में!’
अथवा
‘जात न पूछो साधु की!’
हे कबीर!
क्या कोई मानेगा बात तुम्हारी?
आख़िर,
कब मानेगा बात तुम्हारी?

‘शिक्षित’ समाज में,
‘सभ्य सुसंस्कृत’ समाज में
आदमी - सुरक्षित है कितना?
आदमी - अरक्षित है कितना?
हे सर्वज्ञ इलाही,
दे, सत्य गवाही!

1 comments:

Shamikh Faraz February 1, 2009 at 6:55 PM  

aik achhi kavita ke ke lie mubarakbad.
shamikh.faraz@gmail.com

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