लोक साहित्य का स्वर्णयुग आने वाला है : डॉ. अर्जुनदास केसरी
डॉ. हरेराम पाठक
आप का बाल्यकाल किन परिस्थितियों में बीता? साहित्य के प्रति आकर्षण आपमें कब से पैदा हुआ?
मेरा बाल्यकाल कठिन संघर्षशील परिस्थितियों में बीता। वर्तमान सोनभद्र जनपद के विजयगढ़ परगना में ब्राह्मण बाहुल्य ग्राम भवानीगाँव में (कोरियांग) जो बेलन नदी का उद्गम स्थल है, १९३९ ई. में एक सामान्य शिक्षक परिवार में मेरा जन्म हुआ था। यह गांव साहित्य, संस्कृति, लोक कला की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। मेरी माँ तुलसीदेवी स्वयं सैकड़ों किस्से-कहानियाँ सुनाती थीं, लोकगीत और जगरनाथिया गाती थीं, जो मुझे बड़ा प्रेरक और प्रिय लगता था। पिता श्री भगवान दास गुरु वाणियाँ सुनाया करते थे। गाँव में नाटक और रामलीला होती थी। मुझे याद है, मैंने एक बार उत्तरा का पाठ किया था। गाँव में चमार नथुआ नृत्य करते थे। होली खूब गायी जाती थी। मेरे भीतर लोक साहित्य के प्रति आकर्षण तभी से पैदा हुआ था।
विशेषकर लोक साहित्य के प्रति आपके झुकाव का क्या कारण है? इसकी प्रेरणा आपको कहाँ से प्राप्त हुई?
इस प्रश्न का उत्तर बहुत कुछ पूर्व प्रश्न के उत्तर में निहित है, तब भी मेरा किशोर काल पकरहट गांव में बीता था जो अभिशप्त कर्मनाशा के तट पर स्थित है और अहीर, आदिवासी बाहुल्य है। वहाँ के लोगों का बहुत कठिन अभावग्रस्त जीवन था। लोक की परख मेरी वहीं से हुई। विरहा, लोरिकी, विजयमल के गीत वहाँ रात-रात भर या कौड़ा पर गाये जाते थे। मैं गाय चराने, महुआ बीनने, घास काटने वन जाया करता था और वहीं गीत की पंक्तियाँ भी गुनगुनाने लगता था। रत्थीनाई, मनीजरी बुदिया, रामदास कुर्मी लोकगाथाएँ लोरिकी, विजयमल सुनाया करते थे। उनको सुनने से लिखने के भाव का बीजांकुरण तभी हो गया था। लोरिकायन, विजयमल गाथाओं को लिखने की प्रथम प्रेरणा मुझे वहीं से मिली थी।
हिन्दी के किस लोक साहित्यकार से आप अधिक प्रभावित हैं? उनसे प्रभावित होने की खास वजह क्या है?
मैं हिन्दी के डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय से सर्वाधिक प्रभावित हूँ। उनसे प्रभावित होने का कारण यह है कि पी-एच.डी. के दौरान सबसे अधिक मदद मुझे उन्हीं से बातचीत के द्वारा और उनके साहित्य से मिली थी। उनकी पुस्तकें लोक साहित्य की विश्व कोश हैं।
लोकवार्ता शोध पत्रिका का प्रकाशन आप कब से करते आ रहे हैं? इस पत्रिका के प्रकाशन में कौन-कौन सी बाधाएँ उपस्थित हुईं थीं?
इसका प्रथम अंक लोकवार्ता नाम से १९८५ ई. में वार्षिकांक के रूप में ६८ पृष्ठों का छपा था। इसकी प्रथम प्रेरणा मुझे अपने गुरु एवं शोध निर्देशक डॉ. श्याम तिवारी से मिली थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. विद्यानिवास मिश्र, भाई ठाकुर प्रसाद सिंह और मोहन लाल गुप्त ने भी हमें इसके लिए प्रेरित किया था। हमें का मतलब है मेरी टीम को जिसमें श्री शेख जैनुल आब्दीन, सुधेंदु पटेल और एस. अतिबल से है। इनमें से सभी समर्पित थे। वे समय के थपेड़े से कट गये तो मैं अकेले बच गया-लगभग। मैं इसे कैसे चला रहा हूँ, अब तक, मैं भी नहीं कह सकता। बस भगवान और मेरा आत्मबल या यों कहें कि मेरी संकल्पशक्ति इसे चला रही है। मैं कभी भी हार नहीं मानता। अर्थ की तो ऐसी बाधाएँ आयीं कि यदा-कदा अपनी तनख्वाह या पेंशन तक लगा देनी पड़ी। आधा पेट खाया-खिलाया, परन्तु उसे प्रकाशित किया। सन् १९९५ से बिना नागा वर्ष में ७५ प्रतिशत तीन अंक तो छप ही रही है।
आज की निरन्तर बदलती हुई अध्ययन की विभिन्न दिशाओं में लोक साहित्य को आप किस जगह पर खड़ा देख रहे हैं?
साहित्य की अन्यान्य विधाओं का विकास हुआ है, परन्तु उनमें लोक साहित्य का दिनों दिन विकास और विस्तार हो रहा है। अब वेद का समय समाप्त प्रायः है, लोक ही बढ़ चढ़ कर रहेगा, लोकतंत्र में। अनेक विश्वविद्यालयों में लोक साहित्य पर बहुत काम हो रहा है। वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय सहित अन्य विश्वविद्यालयों में, विदेशों में भी लोक साहित्य स्थान पाने लगा है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में मेरी १३ कृतियों को स्थान मिला है। लोक साहित्य पर बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। शोध कार्य हो रहे हैं। हाँ, संग्रह का कार्य नहीं के बराबर हो रहा है, जो दुःखद है। लोक साहित्य का स्वर्णयुग आने वाला है।
आधुनिक तकनीकी युग में शिष्ट साहित्य भी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। ऐसी स्थिति में लोक साहित्य को बचाये रखने में आप कहाँ तक आशान्वित हैं?
भाई, मुझे आप द्वारा प्रयुक्त शिष्ट शब्द पर आपत्ति है, क्या लोक साहित्य अशिष्ट है। उसे तथाकथित अभिजात्य कहिए। ऐसा कहकर लोगों ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी, उपेक्षा भी बहुत की, परन्तु आप ही सोचिए वे कहाँ हैं? कविता, नयी कविता, अकविता, नयी कहानी, अकहानी का अब कोई नामलेवा नहीं है? ललित निबंधकार कितने बचे? हाँ, उपन्यास, कहानी, थोड़ा बहुत नाटक अभी है, परन्तु ये विधाएँ भी अब लोकपरक और आंचलिक हो गयी हैं। आंचलिक होने के कारण प्रेमचंद अमर हैं। मैं पूर्ण आशान्वित हूँ कि लोक साहित्य वाचिक परम्परा या मौखिक परंपरा में रहते हुए भी आज तक अपना अस्तित्व बनाये हुए है, आगे भी बनाये रखेगा, क्योंकि अब उसे लिखा या लिपिबद्ध भी किया जाने लगा है। हाँ, मैं फिर कहता हूँ कि हम सब लोग मिलकर इसे लिपिबद्ध भी कर लें, ताकि शोध-कार्य भी तेजी से चले। लोक साहित्य में लोक विज्ञान है, लोक की सदियों पुरानी तकनीक है।
अभिजात्य साहित्य की तरह लोक साहित्य भी कुछ पेशेवर लोगों तक ही सिमट कर रह गया है। इसे जन-सुलभ बनाने के लिए क्या करना चाहिए?
हमारा पकाया अभिजात्य वाले खा रहे हैं, हम मुँह ताक रहे हैं। कोई पैदा करता है, कोई बनाता है, कोई खाता है, यह जगत् की रीति है। यही तो शोषक और शोषित का अंतर है। उन शोषकों से हमें बचना चाहिए।
जहाँ तक जन-सुलभ बनाने की बात है, वह तो पहले ही से है। उसे जनसाहित्य कहते ही हैं। जनता के बीच से ही वह उन तक पहुँचा है। हाँ, संग्रह, संपादन, प्रकाशन करके उसे जन-जन तक पुस्तकालयों के माध्यम से पहुँचाया जा सकता है। इसीलिए मैं गाँव-गाँव में पुस्तकालय बनाने की बात ही नहीं करता, हर घर में पुस्तकालय की बात का पक्षधर हूँ।
अभिजात्य साहित्य के विभिन्न विधाओं के अलग-अलग सुधी समीक्षक हैं। लोक साहित्य में ऐसे समीक्षकों का अभाव खटकता है। इसके कारण क्या हैं?
पूरे देश में कितने सुधी समीक्षक हैं? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद उस स्तर के किसी एक समीक्षक का नाम बताइए। समीक्षा विधा भी लुप्तप्राय है। प्रकाशक छद्म नाम से समीक्षाएँ लिखते-लिखवाते हैं, बिक्री के लिए लोक साहित्य कम लिखा ही गया है तो समीक्षक तो कम होंगे ही। अभिजात्य साहित्य के समीक्षक लोक साहित्य की समीक्षा लिख भी नहीं सकता। हमें समीक्षक पैदा करना होगा। लोक साहित्य की पत्र-पत्रिकाएँ बढ़ेंगी तो समीक्षाएँ भी लिखी जायेंगी।
आप अपनी किस रचना को सर्वोत्कृष्ट मानते हैं और क्यों?
मैं तो लोरिकायन को ही अपनी सर्वोत्कृष्ट कृति मानता हूँ, क्योंकि यह भोजपुरी की सबसे लोकप्रिय, लोक विश्रुत लोकगाथा है जिसे पहली बार ७ वर्षों के अथक श्रम से मैंने लिपिबद्ध किया था किसी लोकगाथा के लिपिबद्ध करने का यही श्रीगणेश था। उसके पहले किसी ने इतनी विशाल गाथा को लिपिबद्ध प्रामाणिकता और क्रमबद्धता-समग्रता के साथ किया हो तो बताइए। आप कहेंगे, यह मेरा अहम् बोल रहा है। नहीं भाई, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था - किसी लोकगाथा को लिखने का यह प्रथम कार्य है। इसके लिए इतना श्रम किया गया है कि इस पर एक लाख रुपये का पुरस्कार भी कम है। बात का प्रसंग यह है कि इसकी पाण्डुलिपि पर राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार(उ.प्र. हिन्दी संस्थान का) देने पर विवाद खड़ा हो गया था। तब उसकी टंकित तीन प्रतियाँ भाई ठाकुर प्रसाद सिंह ने (निदेशक) निर्णय के लिए तीन विद्वानों के पास भेजी थीं-द्विवेदी जी, डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय और डॉ. रघुवंश (इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष) तीनों ही ने कलम तोड़कर इस कार्य को सराहा था और तब आचार्य द्विवेदी, महादेवी वर्मा, रामविलास शर्मा, रामकुमार वर्मा, सेठ गोविन्ददास जैसे विद्वानों के साथ इस आदिवासी लेखक को भी सर्वोच्च नामित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से ३७ वर्ष की अवस्था में सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
इस कृति पर केंद्रित होकर मैंने लोरिकायनः एक अध्ययन नाम से शोधकार्य किया जो बाद में प्रकाशित हुई और उस पर बिहार सरकार राजभाषा विभाग का सर्वोच्च नामित विद्यापति पुरस्कार मिल गया। इस कृति पर एक था लोरिक, एक थी मंजरी, लोरिकायन का चरित्रसंगठन और काव्य सौष्ठव नामक दो और कृतियाँ प्रकाशित हुयीं। बिहार से भी इस पर शोधकार्य हुआ। पूर्वांचल विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रश्नपत्र में इससे प्रश्न पूछे जाते हैं। इस पर अध्ययन की और भी संभावनाएँ हैं - जैसे भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, कथा-संरचना एवं कथा-रूढ़ियाँ आदि। रामार्णल के तीन खण्डों का संपादन पुनर्लेखन मेरा दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य है, समय आने पर उसे समझा जायेगा।
लोक साहित्य एवं लोक कलाओं के संग्रह-संकलन हेतु सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं की भूमिका कैसी रही है? क्या आप उनके क्रिया-कलापों से संतुष्ट हैं।
लोक साहित्य एवं लोक कलाओं के संग्रह संकलन हेतु सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं की न भूमिका रही है न रहेगी। पहले सूचना विभाग ऐसे कार्य करता था। पं. रामनरेश त्रिापाठी के संग्रह छपे। आज वोट की राजनीति का जहाँ बोलबाला हो, वहाँ यह सब कार्य नहीं हो सकता। पहले सरकारी संस्थाएँ, केन्द्र में कार्य कराती थीं, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद से अच्छा कार्य हुआ। आदिवासी लोक कला परिषद् भोपाल से श्री कपिल तिवारी भी अच्छा कार्य कर-करा रहे हैं और जगहों से कुछ होता होगा, मुझे पता नहीं है। मैं सरकारी संस्थाओं के क्रिया-कलापों से कतई संतुष्ट नहीं हूँ। दो हजार कजरियों का संग्रह करके मैंने उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी को पच्चीस वर्ष पहले दिया था, एक कजली नहीं छपी। उ.प्र. संस्कृति विभाग में मेरी एक पुस्तक पड़ी है। एक केन्द्र सरकार में भी है, कहाँ छप रही है। इसके लिए और सरकारी संस्थाओं को आगे आकर टीम बनाकर काम-करना, कराना होगा। असम की लोक कलाओं का संग्रह आप करिये कराइए न। ऐसे ही और लोग भी करें।
लोक साहित्य के अध्येताओं को आप कौन-सा संदेश देना चाहते हैं?
यही कि जो जहाँ है, वह काम करें। तमाम लोकवार्ताओं का संग्रह टीम भावना से मिशन बनाकर करने की जरूरत है। हर विश्वविद्यालय महाविद्यालय में हिन्दी विभाग के अन्तर्गत लोकवार्ता प्रमाण बनाया जाये। सामग्री संकलित कराकर उस पर निरंतर कार्य कराया जाये।
1 comments:
बहुत सुंदर परिचर्चा, इससे डा. अर्जुन प्रसाद केसरी का सम्पूर्ण व सरल व्यक्तित्व झलकता है। वे मेरे पिताजी के बालसखा व सहपाठी हैं व बचपन से मैं उनके साहित्य का अनपशरण करता रहा हूँ, व उनकी मौन प्रेरणा से ही कुछ-न-कुछ हिंदी में लिखता भी रहता हूँ।
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