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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Thursday, February 5, 2009

जुलाहा

Shamikh Faraz

मेरे अन्दर भी इक जुलाहा बसता है
जो अक्सर ग़ज़लें नज्में बुनता है
जैसे इक जुलाहा कच्चे पक्के धागों से
और रंग बिरंगे तागों से बुनता कपड़ा है
ऐसे ही मेरे बदन में रहने वाला
मेरी रूह का पड़ोसी ये जुलाहा
ख्यालों को नज्मों में टांकने वाला
मेरे वुजूद का वासी ये जुलाहा
बन के जीवन का मुनीम सुख दुःख के खातों पे
अजब सी दुनिया के ग़ज़ब वाक्यातों पे
करतब दिखलाते हाथों पे नट की करामातों पे
कभी मेरे जज्बातों पे शह और मातों पे
नदिया के घाटों पे यादगार मुलाकातों पे
हाँ कुछ गीली गीली सी बरसातों में
रिश्तों की शाखों पे, उगने वाले पातों पे
जीवन के हाटों में किस्सों की गाठों पे
तन्हा तन्हा रातों में छोटी छोटी बातों पे
लफ्जों के धागों से हरफों के तागों से
अक्सर ग़ज़लें बुनता रहता है
अक्सर नज्में बुनता रहता है.

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली February 5, 2009 at 11:14 AM  

बहुत उम्दा रचना है।बधाई।

डॉ .अनुराग February 5, 2009 at 7:43 PM  

लफ्ज़ खीच लाये यहाँ....बेहद खूबसूरत है

Shamikh Faraz February 6, 2009 at 7:27 PM  

शगुफ्ता जी का मैं बहुत शुक्रगुजार हूँ जो उन्होंने मेरी नज़्म पोस्ट की. शुक्रिया

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