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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Thursday, January 1, 2009

तारीख़ी सनद

नासिरा शर्मा
उस दिन मैदाने ज़ाले ने ख़ून के छीटों से समय की सबसे सुंदर अल्पना अपने सीने पर सजाई थी. पौ फटते ही तारीख़ जैसे अपना कलम लेकर समय की सबसे लोमहर्षक कथा लिखने को बैठ गई थी और मैं अपने हाथ में पकड़ी मशीनगन से हमवतनों का सीना छलनी करने के लिए आमादा सिर्फ़ हुक्म का मुंतज़िर था.
सरकार के साथ गद्दारी और बगावत करने की एक सज़ा थी, वह थी...मौत. नन्हे से शब्द ‘फायर’ की गूँज के साथ मशीनगनों के दहाने आग का दरिया उगलने लगे थे और तब काली चादरों में लिपटे औरतों के बदन से टपकते ख़ून से धरती पर उभरते बेल-बूटे, बच्चों की चीखों से ख़ून के आंसू रोता आस्माँ, मर्दों की आह व बुका से फ़रियाद करती चहार सू...
हमने तुम्हें फूल दिए थे सिपाही तुमने हमें गोली के शूल दिए सिपाही.
इनसानी आवाज़ें मशीनगन की आवाज़ों में डूबकर लाशों के अंबार में ढल गई थीं. चिनार के पेड़ों की शाखों ने अपनी गरदनें झुका ली थीं और उन पर बैठी चिड़ियां अपना घोंसला छोड़कर चीख़ती जाने किस वीराने की ओर उड़ गई थीं.
ज़मीन पर पड़ी लाशों के ढेर में ‘महवश’ भी थी, जिसकी जवानी गुंचों की तरह उसके सीने फूटी थी मगर अब शकायक के सुर्ख फूलों में ढल चुकी थी.
लाशों के इसी मलवे में ‘हसन’ भी था जिसकी तुलना जबान से ‘मल्ग बल चाह’ (मर्ग बर शाह) की मीठी धुन उभरती थी. उसकी ज़िंदगी का साज़ खामोश...अब हमेशा के लिए खामोश टूटा पड़ा था.
जिस्मों से दबी एकदम नीचे ‘जैनब’ की लाश थी. जैनब जिसने टूटकर ज़िंदगी को चाहा था. ज़िंदगी में विभिन्न रंग के रंगीन ताश के पत्ते फेंटे थे. इस जुए में वह हारी भी थी और जीती थी, मगर आज की जीत का नूर ही निराला था...शफक की तरह ताज़ादम और आग की तरह सुर्ख़ और गरम.
ये एक ही खानदान के तीन लोग थे जिन्हें मैं जानता था...बहुत करीब से जानता था, जिन्होंने मैदाने ज़ाले की सुंदरता में एक फूल दो पत्तियों का इज़ाफा किया था.
उस दिन सुबह मुँह अंधेरे ही लोग घर से निकलकर ‘मैदान ज़ाले’ की ओर चल पड़े थे मगर उन्हें क्या पता था कि उनके इस गमन से फ़ायदा उठाकर भोर का तारा ख़ून के फव्वारों में बदल जाएगा. ‘मार्शल ला’ का ऐलान कब हुआ, उन्हें पता न लग सका. रेडियो खोलने की किसे सुध थी, फिर कौन सा ख़बर आने का समय था? घरों से आ-आकर लोग रस्सियों की नाजुक आड़ के पीछे सड़क और फुटपाथों पर बैठ गए थे. वे अपना मूक आक्रोश व्यक्त करने आए थे, मगर अचानक गोलियों के अंगारों ने दस मिनट के अंदर पंक्तिबद्ध बैठे निहत्थे लोगों को क्रोध से भून डाला था और देखते-ही-देखते तड़पते बदन सड़क पर लौटते, दर्द से ऐंठते, दम तोड़ते-सिमटते हुए तले-ऊपर हो गए थे वैसे अढ़हती की कोठरी में ज़मीन से लेकर छत तक चावल की बोरियाँ एक-दूसरे पर चुन दी गई हो.
वह सारा दृश्य ऊँचाई से देखने पर वास्तव में हृदय-विदारक था, मगर मेरी आँखें सब कुछ देखकर भी हाथ का साथ नहीं दे पा रही थीं, न हाथ मेरे दिल व दिमाग बल्कि ज़िंदगी भर की सधी उंगलियाँ मशीनगन पर अपना दबाव कायम रखे थीं.
माँ, मैं ठीक कर रहा हूँ. आज़ादी नजदीक है, वह देखो! अब तो आज़ादी की हवा भी चलने लगी है, सूंघो! कैसी प्यारी मदमाती सुगंध भरी है इस शरद ऋतु की हवा में. आज़ादी की भीनी-भीनी महक या ख़ुदा. कल जब यह सुगंध खुलकर फैलेगी तो कैसा अनुभव होगा

लाशों के सामने कुछ दूर पर पुराने जूते, सैंडिलें, पर्स, कपड़े पोटलियाँ जिनमें खाने का सामान था, फटे अख़बार और कागज़ों के ढेर पड़े थे. अधिकतर लोग पुराने तेहरान के निचले इलाके से थे. गरीब, फकीर जिनकी उम्मीदें कल से अधिक अपने द्वारा लगाए जाने वाले इंकलाब पर थीं.
गोलियों से खाली मशीनगन को हाथ में पकड़े मैं बेहिस खड़ा था. मेरी आँखें जख्मियों का पीछा कर रही थीं जिन्हें लाशों के बीच से निकालकर, वैन में डालकर उपचार के लिए अस्पताल ले जाया जा रहा था. मुरदों के ढेर पर गड़ी मेरी आँखें उस इंकलाबी शायर को ढूंढ़ रही थीं जो इंकलाबी शेर कहता था, सारे दिन अपने घर के आंगन में टहलता रहता था और हर पांच मिनट बाद घर के कामों में व्यस्त अपनी माँ को संबोधित करना हुआ बच्चों की-सी व्याकुलता से कहता था,‘‘...माँ, मैं ठीक कर रहा हूँ. आज़ादी नजदीक है, वह देखो! अब तो आज़ादी की हवा भी चलने लगी है, सूंघो! कैसी प्यारी मदमाती सुगंध भरी है इस शरद ऋतु की हवा में. आज़ादी की भीनी-भीनी महक या ख़ुदा. कल जब यह सुगंध खुलकर फैलेगी तो कैसा अनुभव होगा.’’
वह सिरफ़िरा शायर बड़ी हिकारत भरी मुसकराहट और कटाक्ष भरी आँखों से उसे घूरता था जब वह ड्यूटी के लिए घर से अपनी वरदी पहनकर निकलता था और शाम को ड्यूटी से लौटता था. मगर अफसोस. वह लाशों के ढेर में न था, न उसका इंकलाबी तराना फ़िजां में तैर रहा था. वह तो इस वक़्त रेडियो को कान से लगाए. आंगन में किसी बिफरे शेर की तरह अपने कछार में दहाड़ता टहल रहा होगा ‘बी शरफहा’. पैर पटकता हुआ पेंच,-ताव खाता हुआ, दांतों को पीसता, ख़ून के आँसू रोता हुआ.
इस मूर्दा गोश्त के अंबार में वह भारी मूंछों और भरे गालोंवाला कहानीकार भी न था जो परदा-दर-परदा दिमागी कलाबाजियाँ शब्दों के द्वारा देता हुआ सरकार पर चोटें करता था जिसकी कलम तिरयाक का असर रखती थी. वह केवल कागज़ पर छपता था. न किसी पत्रिका में, न किसी समाचार-पत्र में उसका नाम नज़र आता था, न उसका कोई संकलन था, न संग्रह, बस दो कागज़ों की सीमा पर उड़ेला वह ज़हर को मारने वाला विषहर जिसे पढ़ने वाला बड़े आराम से तह करके कोट की जेब में रख सकता था. वह भी न मुरदों में था न जख्मियों में.
बदनों के इस साकित दरिया में वह जवान लड़की भी न थी जो सबसे आगे सीने को ढाल बना, नारे लगाती हुई गुज़रती थी.
जब वह सावधान की मुद्रा में रायफल लिए टैंक पर खड़ा होता था तब वह लड़की बिना झिझके बास्केट में पड़े फूलों में से एक लाल शगुफ़्ता फूल उठाकर उसे भेंट करती हुई वह रोज़ का नारा दोहराती थी...
‘‘सिपाही. हम तुम्हें फूल देते हैंकल, हमें गोली का उपहार मत देना.’’
उसका सारा वजूद उस मासूम अनुरोध भरी आवाज़ से पिघलने लगता था, मगर फिर सिमटकर जमे मोम की तरह ठोस होकर और ड्यूटी पर इन अहसासों से स्वतंत्र हो बड़ी शान से फूल लेता और बड़े घमंड से बंदूक की नाल में खोंस देता था. इसके बाद नई नस्ल के सांचे में ढले नौजवान नारे लगाते, खिलखिलाते, कभी कोई शरीर लड़का उनमें से उसे आँख मारता गुजर जाता था.
सरबाज़ जो सर की बाज़ी लगा देने वाला सिपाही था, उसकी मौत के समाचार में न बहादुरी का ख़िताब था, न शहीद का नाम; बल्कि एक गुमनाम खुदकुशी का मुख्तसर बयान था. मगर कौन जानता है कि छह महीने में उसने पूरे ‘फायर’ हवाई किए थे और तिल-तिलकर वह एक विचित्र ग्लानी से तपता-पिघलता समाप्त हो रहा था

यहाँ तक कि इस भीड़ में आज आग़ा भी न था जो शाम के घिरते ही हुक्का लेकर अपने घर की चौखट पर बैठकर लंबे-लंबे कश भरता हुआ शहर में हुई हिंसात्मक घटनाओं की चर्चा करता था. गर्ज कि जिन लोगों को उसकी उम्मीद भरी बेचैन आँखें तालाश करती थीं उनमें से वहाँ कोई भी ज़िंदा या मुर्दा मौजूद न था. वहाँ तो केवल फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे बेहिस जिस्म थे जिन्हें वह नहीं पहचानता था...केवल महवश, हसन और जैनब को छोड़कर.
वह भी कितना नादान है, वह सब यहाँ कहाँ होंगे? वह शायर, वह कहानीकार, वह लड़की, वे लड़के, उनके मक़तलगाह तो ओविन और हेसार जेल की चहारदीवारियाँ है जहाँ तंग अंधेरी कोठरियों में, बिजली के तार की मार, बिजली की कुरसी और जाने क्या-क्या...
लाशों के उठते ही भीड़ अस्पताल व सर्दखाने की तरफ छँट गई. इधर-उधर रूके लोग, जिनका इस घटना से कोई संबंध न था, अपने घरों के रास्ते पर भयभीत अपनी मुर्दा काया को घसीटते बढ़ने लगे. चौराहे पर आमद व रफ्त आरंभ हो गई और कुछ देर बाद सब कुछ शांत...केवल ख़ून के धब्बों पर हवा एक सख़्त पपड़ी की रचना कर रही थी.
शाम होते-होते ज़िंदगी दोबारा टूटकर जुड़ चुकी थी. चहल-पहल, शोर-शराबा, नारे, जुलूस, फ़िल्म, होटल; मगर वह पूरी तरह से खो चुका था. कहाँ जाए? उसने मशीनगन की सारी गोलियाँ खाली कर दी थीं और अब घर आकर बिलख-बिलखर किसलिए रो रहा था?
कुछ वर्ष पहले ज़ैनब इसी घर में ब्याहकर आई थी. क्योंकि वह उसकी पत्नी थी. महवश उसके इर्द-गिर्द घूमती थी क्योंकि वह उसकी बेटी थी. हसन उसके सीने पर सिर रखकर सोता था. क्योंकि वह उसका बेटा था. ये सारे प्यार के बंधन मोहब्बत के रिश्ते सियासी मतभेद से खिंचते, कमज़ोर पड़ते आख़िरी चंद महीने पहले टूट गए थे. ईरान वीरान हुआ था या नहीं, मगर उसका घर ज़रूर उजड़ गया था. उसका सारा वजूद वीरानी में ढल गया था.
ज़ैनब की इच्छा से ही उसने दो वर्ष पहले शाही फ़ौज में अपना नाम दिया था. सब कुछ अच्छा चल रहा था. मगर एकाएक जैनब के विचारों में बदलाव आया और वह उससे नाराज़ होकर अपना घर छोड़कर भाई के घर चली गई. वह उसे शाह का खरीदा गुलाम कहती थी. वह सारे कटाक्ष सहन कर सकता था मगर उसका कर्तव्य, उसकी ट्रेनिंग, उसकी शपथ क्या पल भर में उससे नाता तोड़ लेते? कल तक जो लोग उसके मजाक का केंद्र थे देखते-देखते शहादत का जाम पी गए. चार हज़ार लोग! एक सुबह को! आखिर क्यों? क्या सच है, क्या झूठ है? वह बेचैन रहा!
उसे उस पल क्या हुआ था जब शकायक के फूल पहाड़ी चट्टानों के बीच तेज हवा के वेग से टूट-टूटकर बिखर रहे थे तब उसे होश आया था और एकाएक रोशनी की तेज सुरंग ने उसकी बंदूक की नाल को नाक की सीध में न करके ऊपर आसमान की तरफ कर दिया था. तो क्या...वह घोखेबाज़ और गद्दार निकला? उसने नमकहरामी की थी? फौजी ट्रेनिंग को मिट्टी में मिला दिया था? एकाएक उसका मन इतना चंचल और मस्तिष्क इतना अनमना क्यों हो गया था? असमान की ओर छूटती उसकी बंदूक की सारी गोलियाँ इस तन्हा घर में उसके विचारों पर हथौड़े मार-मारकर उसे बेदम कर रही थी.
चंद दिन बाद समाचार-पत्र में एक सुर्खी थी ‘सरबाज़ की मौत’, उसके नीचे लिखा था, ‘‘कल एक सरबाज़ की लाश मिली जिसके सिर पर गोली लगी है, लाश खराब हो चुकी है इसलिए शक्ल पहचानना कठिन है.’’
अफ़सोस! सरबाज़ जो सर की बाज़ी लगा देने वाला सिपाही था, उसकी मौत के समाचार में न बहादुरी का ख़िताब था, न शहीद का नाम; बल्कि एक गुमनाम खुदकुशी का मुख्तसर बयान था. मगर कौन जानता है कि छह महीने में उसने पूरे ‘फायर’ हवाई किए थे और तिल-तिलकर वह एक विचित्र ग्लानी से तपता-पिघलता समाप्त हो रहा था. बंदूक की गोली तो सिर्फ़ एक बहाना था कहानी को शीघ्र दफ़न करने का. मगर तारीख़ को इतनी फुरसत कहाँ कि वह हक़ीकतों को बारीकी से कलमबंद करे कि मरने वालों में एक सिपाही भी था जो अपने अंदाज़ से लहू बहाकर शहीदों में शरीक हुआ था.

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