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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Sunday, December 28, 2008

GAZAL

बशीर बद्र




कभी यूँ भी आ मिरी आँख में, कि मिरी नज़र को ख़बर न हो,
मुझे एक रात नवाज़1 दे, मगर उसके बाद सहर2 न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम3 है, मुझे ये सिफ़त4 भी अता5 करे,
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो मिरी दुआ में असर न हो

मिरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब6 है चाँदनी,
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में, पिछली रात की चाँदनी,
न बुझे ख़राबे7 की रोशनी, कभी बेचिराग़ ये घर में न हो

कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब8 के फूल को चूम के,
यूँ ही साथ-साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मिरे पास मेरे हबीब9 आ ज़रा और दिल से क़रीब आ,
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं कि बिछड़ने का कोई डर न हो
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1.कृपा करना। 2.प्रातःकाल। 3.दयालु और कृपालु। 4.गुण, प्रभाव।
5.प्रदान करना। 6. स्वप्न देखने में रत। 7.निर्जन, खँडहर। 8.रात्रि। 9.मित्र।


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