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Sunday, October 24, 2010

स्त्री-मुक्ति के बनते-बिगड़ते समीकरण में बाज़ारवाद और मीडिया की भूमिका

शत्रुघ्न सिंह



लम्बे अवसान के बाद अब नारी जागृति का युग शुरू हुआ है। परंपरा से व्यक्तित्व हीनता व शाप ग्रस्तता का जीवन जीने वाली, दमित, शोषित स्त्री पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में अपने अधिकार, स्वतंत्राता व अपनी मुक्ति के लिए एक नया भाष्य गढ़ रही है। वह संघर्ष का एक नया तर्कपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रही है। उसके संघर्ष की इस चेतना के फलस्वरूप यह महसूस किया जाने लगा है कि ‘‘स्त्री की मुक्ति का सवाल, उसके अस्तित्व एवं मनुष्यत्व को स्वीकार करने का सवाल, आज मानवता का सबसे बड़ा सवाल है।’’1

स्त्री ने अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए जो संघर्ष शुरू किया, उसका सैद्धांतिक प्रतिफलन ‘नारीवाद’ है। नारीवाद स्त्री जीवन की समस्याआंे और उसके समाधान का एक वैचारिक आन्दोलन है। इसे परिभाषित करते हुए ‘इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में कहा गया है कि ‘‘यह एक ऐसा आन्दोलन है जो नारी को पुरुष के समान सम्मान और अधिकार प्रदान करेगा और अपनी जीविका और जीवन पद्धति के सम्बन्ध में स्वाधीन रूप से निर्णय देने का अधिकार देगा।’’2

नारीवाद में लैगिंक और सामाजिक, दोनों स्तरों पर स्त्री को पितृसत्ता की जकड़ बंदियों से बाहर निकालने का संकल्प है। उसमें उसकी शिक्षा, सम्पत्ति और लोकतांंित्राक अधिकारों को अर्जित करके उसकी स्वतंत्रा पहचान कायम करने का प्रयास है क्योंकि परम्परागत समाज में समस्त अधिकारों से हीन स्त्री केवल अपने ‘शरीर’ से पहचानी जाती है। यद्यपि प्रकृति ने दोनों का निर्माण मनुष्य के दो रूप नर व मादा में किया, किन्तु पुरुष ने अपनी अहं और श्रेष्ठता की भावना के वशीभूत होकर समाज में अपनी सत्ता कायम करने के लिए स्त्री के प्रति भेदभाव से भरी एक शोषण मूलक धर्म, संस्कृति, परम्परा व व्यवस्था का निर्माण किया। इसके लिए उसने स्त्री की देह को आधार बनाया। इसलिए आज हम स्त्री की किसी भी समस्या के मूल में झांकंेगे तो उसकी देह ही दिखाई देगी। ‘‘उसके किसी प्रकार के शोषण का प्राइम साइट उसका देह ही होती है। किसी प्रकार के स्त्री अपराध की बात करें; मारपीट, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, सती प्रथा, मीडिया में कमोडीफिकेशन, बलात्कार या मानसिक उत्पीड़न यहाँ तक कि गाली-गलौज के केन्द्र में भी स्त्री का शरीर ही रहता है।’’3

स्त्री-विमर्श की बात करते हुए इस बात पर विशेष बल दिया गया कि जब स्त्री के शोषण और उत्पीड़न का मुख्य कारण उसकी देह है तब उसकी मुक्ति और सशक्तिकरण का आरंम्भ भी उसकी देह से ही होना चाहिए। उसे इस अहसास से मुक्त करने का प्रयास होना चाहिए कि वह सिर्फ ‘देह’ है। इसलिए देह-मुक्ति वर्तमान स्त्राी-चिन्तन का मुख्य मुद्दा है और यह सौ फीसदी सच है कि ‘‘स्त्राी-मुक्ति का प्रस्थान बिंदु देह की मुक्ति ही होगा।’’4

स्त्री के लिए ‘देह-मुक्ति’ का अभिप्राय ‘अपने शरीर पर अपना दखल’ की आज़ादी प्राप्त करने से है; जिससे वह पहनने-ओढ़ने, बसों, टेªनों, में सफर करने, पढ़ने-लिखने में और विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में सहज व स्वाभाविक ढंग से पुरुषों के साथ रहने व काम करने में किसी भी तरह की कुण्ठा, भय या ही

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महिला कथा लेखन और नारी संत्रास के विविध रूप

बबिता के



महिलाओं की समस्याओं को आधार बनाकर महिलाओं द्वारा निर्मित लेखन समकालीन हिन्दी साहित्य में एक रोचक एवं दिलचस्प विधा के रूप में दृष्टिगत है। बंगमहिला से लेकर अनेक लेखिकाओं ने अपनी साहित्यिक कृतियों के जरिए नारी मुक्ति के विचारों को महिला जगत में पूरी तरह फैलाकर महिलाओं में जागृति लाने का कार्य किया है। शिक्षा, विदेशी प्रभाव, रोजगार आदि को लेकर भारतीय नारी के बदलते परिवेश आधुनिक महिला कथा लेखन में प्रतिफलित है। पुरुष के रू-ब-रू होकर मानवीय संदर्भ में अपनी अतीत और वर्तमान की विसंगितयों को ध्वस्त कर सुखद भविष्य के नींव धरने की सुकून भरी चाहत यही तो है महिला कथा लेखन।’’1

परंपरा एवं आधुनिकता, संस्कार, शिक्षा को लेकर आज की नारी विवश है। कथनी और करनी के अन्तर ने स्त्री के जीवन में जितना वैषम्य लाया है उसे उसका जागरूक मन पहचान नहीं सकता। वह अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही है। आत्मान्वेषण की अदम्य चाह या अपनी पीड़ाओं, कुंठाओं से मुक्ति का आग्रह समकालीन महिला कथा लेखन के मूल में है। डाॅ. राजकुमारी गड़कर के अनुसार- स्त्री की स्थितियों को स्वयं स्त्री वर्णित करती है तो उसका प्रभाव और उसकी रियेलिटी पूरी भिन्न होती है इसी अर्थ और संदर्भ में महिला उपन्यास लेखन को देखना चाहिए।2

स्वांतत्रयोत्तर महिला लेखिकाओं ने नैतिक मूल्यों के प्रति जागृत होकर हिन्दी कथा साहित्य को नयी दिशा देने का प्रयत्न किया। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, सूर्यबाला, मालती जोशी, प्रभा खेतान, मैत्रोयी पुष्पा आदि लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री की साहसिकता का परिचय देकर उसकी मानसिक पीडा को बहुत ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्ति दी है। आज महिला लेखन के समक्ष अनेक चुनौतियां हैं। कृष्णा सोबती ने मित्रों मरजानी के माध्यम से एक स्त्री की साहसिकता व्यक्त की है। उनकी मित्रों ऐसी एक पात्रा है जो नैतिकता का आडंबर छोड़कर अपनी दैहिक जर$रतों की अभिव्यक्ति खुलकर की है। मृदुला गर्ग का चितकोबरा, नासिरा शर्मा का शाल्मली, प्रभा लेखन का छिन्नमस्ता आदि नारी की विभिन्न समस्याओं को अभिव्यक्त करने वाले उपन्यास हैं। मृदुला गर्ग का उपन्यास मैं और मैं एक महिला लेखिका के ज़िन्दगी की संघर्ष को चित्रित करने वाला उपन्यास है। पारिवारिक जिम्मेदारियां और लेखन के द्वन्द्व के बीच फंसी नारी की विवशता का यथार्थ चित्राण इसमें है। मैत्रोयी पुष्पा का चर्चित उपन्यास इदन्नमम स्त्री संघर्ष का जीवन्त दस्तावेज कहा जाता है। वैश्विक तथा भारतीय परिवेश में स्त्री शोषण की कहानी सुनाने वाला और एक उपन्यास है-कठगुलाब। कठगुलाब के सभी पुरुषों द्वारा पीड़ित एवं प्रताड़ित दिखाया गया हैं।

आधुनिक काल की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण स्त्री का भी सर्वांगीण विकास हुआ। वह घर से बाहर आने लगी। पुरुष पर ज्यादा निर्भर रहना उसे पसन्द न आया। परिणामतः पति पत्नी में से झगड़ा शुरू हो गया। एक दूसरे को सहना मुश्किल हो गया तो तलाक का प्रश्न भी सामने आया। मन्नू भंडारी का उपन्यास आपका बंटी दाम्पत्य जीवन की समस्याओं को विषय बनाया गया उपन्यास हैं। दोनों की अहंवादी प्रकृति के कारण दाम्पत्य जीवन की समस्याएं शुरू होती है। मृदुला गर्ग की दो एक फूल कहानी

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सर्वेश्वर के बकरी नाटक में राजनीतिक चेतना

एलोक शर्मा



सर्वेश्वर दयाल सक्सैना का रचना संसार विविध रंगों से रंगा है जिसमें प्रेम का पावन स्वर है, प्रकृति की मनोरम छटाएं है। साथ ही भूख एवं गरीबी का चित्राण है इतना ही नहीं राजनीतिक, सामाजिक स्थिति पर करारा व्यंग्य भी है। सर्वेश्वर के काव्य में युगीन परिवेश का सफल चित्राण हुआ, सर्वेश्वर जी स्वतन्त्राता पूर्व एवं पश्चात् की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों एवं घटनाओं के सक्रिय दर्शक थे। अपने चारों ओर व्याप्त विसंगतियों सत्ता पक्ष की निरकुंश प्रवृत्ति, देशवासियों की सामाजिक-राजनीतिक परिवेश के प्रति उदासीनता एवं खोखले लोकतंत्रा की त्रासदी को अपने नाट्य साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी।

सर्वेश्वर जी एक प्रयोग धर्मी नाटककार हंै। नाट्य क्षेत्रा में नये-नये प्रयोग कर उन्होंने अपनी नाट्य प्रतिभा का परिचय दिया सर्वेश्वर जी के नाटक जन-साधारणोन्मुख है एवं उनके नाटकों में स्थापित व्यवस्था का खुलकर और कहीं-कहीं विद्रोहात्मक विरोध हुआ है। उन्होंने राजनीतिक परिस्थितियों में जूझते एवं पिसते चरित्रों को अपने कथानक में स्थान दिया। अतः सर्वेश्वर जी जनसाधारण से जुड़े थे एवं उनके पास माक्र्सवादी जीवन दृष्टि थी यही कारण है कि उनके बकरी, लड़ाई और अब गरीबी हटाओं नाटक प्रतिबंध नाटक माने जाते है।

प्रतिमबद्ध नाटक या किसी राजनीतिक विचारधारा विशेष से प्रभावित नाटक में यह आवश्यक हो जाता है कि नाटककार राजनिति परिवेश की पूर्ण समझ हो एवं राजनीति बोध को तिलमिला देने वाले विचार तंत्रा को जोड़कर मानव-नियति के पक्ष को उजागर करें।

सर्वेश्वर जी ने स्वयं लिखा कि ‘‘जब चारों ओर के लोग इस बात पर कमर बांधे हो कि वे आपकी बात नहीं समझेंगे, तब आपके सामने दो ही रास्ते रह जाते है, या तो चुप रहे अपनी बात न कहें या फिर इस ढं़ग से कहे कि सुनने वाला तिलमिला उठे, उनकी कलाई उतर जाये।’’1

सन् 1974 में प्रकाशित सर्वेश्वर जी का ‘‘बकरी’’ नाटक सफल राजनीतिक नाटकों में से एक है। इसमें लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था एवं उनमें पनपे अमानवीय मूल्यों पर तीखा व्यंग्य है। सर्वेश्वर जी ‘‘बकरी’’ नाटक में गाँधी जी के नाम एवं सिद्धान्तों की आड़ में अपनी स्वार्थी पूर्ति करने वाले नेताओं की पोल खोलने का प्रयास किया एवं नाटक के माध्यम से समसामयिक, राजनीतिक नेता व्यवस्था राजनीति के विकृतरूप, राजनीतिक अवसर वादिता, पुलिस वर्ग मंे व्याप्त भ्रष्टाचार, जनता का शोषण, समाज एवं जनता का राजनीतिक के प्रति उदासीनता एवं गांधीवादी मूल्यों में आई विकृति को व्यंग्यात्मक एवं यथार्थ रूप से अपने बकरी नाटक में प्रस्तुति दी।

इसमें सर्वेश्वर जी ने सदैव दूसरे मार्ग का अनुसरण किया। सर्वेश्वर जी ने अपने ‘‘बकरी’’ नाटक के माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक समस्याओं एवं विडम्बनाओं से घिरे लाचार मानव के संकट के कारुणिक चित्रा प्रस्तुत किये।

डाॅ. गिरीश रस्तोगी के शब्दों में -‘‘बकरी’’ बदलते हुये तेवर का सीधा-सादा प्रभावशाली नाटक है जिसमें समसामयिक-राजनीतिक व्यंग्य का तीखापन भी है और सारे प्रपंच, दबाव को निरन्तर झेलती हुई आम जनता का असन्सोष, विद्रोह, खीजभरी, झुझलाहट और एक निर्णय भी है।2

बकरी नाटक में डाकू के पेशे को छोड़कर राजनीतिक में प्रवेश करने वाले दुर्जन सिंह व उसके साथी मिलकर जो पूजा गीत ‘‘तन मन धन

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मुक्तक काव्य

डा. बशीरूद्दीन एम. मदरी

साधारण मानव भी विचारशील और संवेदनशील होता है। किंतु वह अपनी अनुभूति को छंदोबद्ध करके संवेद्य नहीं बना सकता। जैसा कि कवि काव्य सर्जन द्वारा कर सकता है।1 यानी मनुष्य के आंतरिक भावोद्वेलन की मुखर अभिव्यक्ति को कवि ही सार्थक ध्वनि दे सकता है। प्राचीनकाल से मनुष्य अपनी गहरी भावना को बार-बार शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति करते आया है। कविता हो या काव्य दरअसल मनुष्य की निजी एकांतिक संपत्ति है। इसी को तुलसीदास ने स्वान्त सुखाय कहा। चाहे काव्य या कविता में कवि अपने स्वप्नों, आदर्शाें अपनी चिंताओं, अपने विचारों और जीवनानुभूतियों को शब्दों के माध्यम से साकार कर आनंदित होता है। यद्यपि तुलसीदास बड़े कवि माने जाते हैं तो केशवदास शब्दों से चमत्कृत जनकतः काव्य कर काव्य खिलाड़ी माने जाते हैं। वास्तव में कवि स्वभाव से सौंदर्य प्रेमी होने के कारण अपनी रचना मंे सत्यम् शिवम् सुंदरम् को प्रदान करते हुए कविता को उसकी परिभाषा तक ठहरा देता है। इन तीनों गुणों के कारण कविता महानता प्राप्त करती है।

महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजन लेख या वक्रोक्ति ही काव्य जीवित का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई स्तरों का नाम पद्य है।2 वे कहते हैं कि जिस पद्य को पढ़ने या सुनने से चिद्द पर असर नहीं होता वह कविता नहीं बल्कि नपी-तुली शब्द स्थापना मात्रा।

पहले का जागरूक संवेदनशील कवि अपनी एक कविता की व्याख्या दूसरी कविता में और दूसरी की व्याख्या तीसरी कविता में करता जिससे पाठक को बांधे रखने की कला वह अच्छी तरह जानता था। किंतु आज का समकालीन कवि मानवीय नियति में परिवर्तन देख वह उसी धरातल पर लिखना चाहता है जिसे आज की पीढ़ी चाहती हो। इसी के समर्थन में आधुनिक काव्य धारा जो सन् 1970 ई. के आसपास भारतेन्दु के प्रयत्नों से आरंभ हुई। ब्रजभाषा आधुनिक समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल न होने के कारण नई समस्याओं को अभिव्यक्ति देने के लिए एक नई भाषा की खोज में खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। लेकिन इसके पूर्व पुरानी काव्य भाषा-शैली की अपेक्षित पूजा होती थी। जिसकी पुनव्र्याख्या के द्वारा भारतीय जन को उसके अतीत की वास्तविकता से परिचय कराया जाता था। जिसका श्रेय स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परहंस, महात्मा गांधी को जाता है। क्योंकि ये लोग भारतीय जन जागरण के परिशोधन और व्याख्यता समझे जाते हैं। इसी आधार पर सारे इतिहास सारे चरित्रों की नए सिरे से व्याख्या होने लगी। इसी व्याख्या और परिशोध के परिणाम आधुनिक भारतीय हिन्दी साहित्य और हिन्दी की कविता है। जिसमें हरिऔंध, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की भूमिका अहम् रही। इन कवियों ने भारतीय इतिहास पुराण की नयी व्याख्या को अपनी रचनाओं में प्रतिष्ठित किया। आज हिन्दी कविता ऊँची कगार पर इसलिए है जिसकी तेजी की पकड़ मात्रा से भाषा शैली अभिव्यक्ति और कवि के निजी अनुभवों में अनेक काव्य आंदोलन आए। इनमें छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता जिसकी प्रमुख धाराएं है। इसमें प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी आदि उन्नायक कवियों मंे से है। इसी कड़ी का विकास जिन कवियों में देखा जाता है उनमें बच्चन, दिनकर, नरेन्द्र शर्मा, गिरिश कुमार माथुर और शिवमंगल सिंह सुमन आदि की गिनती होती है। इस तरह हिन्दी काव्य परंपरा की आधुनिक काव्यधारा ने पिछले सौ वर्षाें में हज़ार की दूरी तय की।3 आज संसार की किसी भी भाषा की कविता के समकक्ष की दावेदार बन सकती। मुक्तक काव्य तारतम्य के बंधन से मुक्त होने के कारण (मुक्तेन मुक्तकम) मुक्तक कहलाता है उसका प्रत्येक पद स्वतः पूर्ण होता है।4 यदि इसकी परिभाषा पर प्रकाश डाला जाता है तो हमें संस्कृत काव्य शास्त्री ग्रंथांे की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। जिसमें मुक्तक के लिए ऐसा कहा गया है कि- मुक्तक वह श्लोक है जो वाक्यांतर की अपेक्षा नहीं रखता।

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पितृसत्तात्मक व्यवस्था का दस्तावेज: ‘तीसरी सत्ता’

कुशम लता

गिरिराज किशोर हिन्दी-साहित्य के अग्रणी कथाकार हैं। उन्होंने समस्त सामाजिक, राजनीतिक चेतना और विसंगतियों-अन्तर्विरोधो को गहरी संवेदनशीलता और तर्कपूर्ण चिन्तन के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक के अनुभव और संवेदना का एक पक्ष स्त्री-पुरुष संबंधों से भी जुड़ता है जिसका अंकन विशेष रूप से ‘तीसरी सत्ता’ उपन्यास में मिलता है। पति-पत्नी संबंधी पारम्परिक एवं नयी मान्यताओं की टकराहट इस उपन्यास अर्थ से इति तक विद्यमान है। नारी के व्यक्तिगत स्वातंत्रय और पारम्परिक पुरुष-दृष्टि के संघर्ष के अन्त में नारी अपने में निहित ममता और प्रेम के कारण सिर झुका लेती है। यह स्वीकृति पराजय को व्यक्त नहीं करती है बल्कि अपने में निहित मातृत्व की महिमा को व्यक्त करती है। इसलिए यह उपन्यास वर्तमान की नारी के स्वातंत्रय के साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी उकेरता है। इसके अलावा यह निम्नवर्गीय वफादारी, मध्यवर्गीय चालाकी आदि मुद्दों पर भी प्रकाश डालता है।

समाज में आये दिन होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव जीवनबोध को नयी दिशाओं, दशाओं और संभावनाओं से भरता रहता है, पुरुष और स्त्री इन परिवर्तनों के भोक्ता हंै। नियति से ही पुरुष और स्त्री के जीवन में जो भेद है उसे पुरुष ने और भी अधिक विषम बना दिया है। परन्तु नारी जागरण की दिशाओं और संभावनाओं में प्रगति होेने के कारण नारी जीवन और जगत में मूल्यगत संक्रांति हुई है क्योंकि महिलाओं की शिक्षा और रोजगार के अवसरों में काफी वृद्धि हुई है। परिवर्तित परिस्थितियों के कारण स्त्री की भावनाओं, विचारों, विवाह, प्रेम, यौन संबंधों, सामाजिक परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों तथा स्त्राी-पुरुष चरित्र की नैतिकता के प्रति दृष्टिकोण मंे बड़ा परिवर्तन दिखायी देता है। बेटी हो या माँ, बहन हो या पत्नी सभी संबंधों में पुरुष के प्रति उसके दृष्टिकोण में अंतर आ गया है परन्तु पुरुष उसके इस परिवर्तित रूप को स्वीकार करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है, अतः स्त्री का जीवन तनावग्रस्त, द्वंद्वपूर्ण, पेचीदा और संक्रात हो गया है।1

गिरिराज किशोर का ‘तीसरी सत्ता’ उपन्यास सन् 1982 ई. में प्रकाशित हुआ है। आज के आधुनिक एवं विज्ञान युग में भारतीय नारी एवं उसके चरित्रा के संबंध में आज भी रूढ़िवादी संकीर्ण दृष्टिकोण है। पुरुष सत्ता प्रधान वैचारिकता वर्गेतर नारी-पुरुष के संवेदनात्मक संबंधों को संशय एवं हिकारत की दृष्टि से देखती है। इस तरह के अन्तर-वर्गीय नारी-पुरुष के संवेदनात्मक, भावात्मक संबंधों के प्रति पुरुष प्रधान मानसिकता को इस उपन्यास में उभारा है। ‘‘गिरिराज किशोर की लेखनी से निकलने वाली यह रचना अपने संदर्भों को तब तक विकसित करती रहेगी जब तक मानव की सोच और व्यवहार को व्याख्यायित करने की संभावना है।’’2 ‘तीसरी सत्ता’ परम्परागत त्रिकोणात्मक उपन्यास से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें रमा और रामेसर के बीच पनपा संबंध मूलतः शंका और लांछन की हवा पाकर ही विकसित होता है। ‘‘मदन की अतिरंजित रूप से शंकालु प्रवृत्ति और आस पास के लोगों की लांछन भरी फुसफुसाहट उन दोनों को करीब लाकर इस संबंध के बारे में अतिरिक्त रूप से सजग बना देती है। अन्यथा जैसी उन दोनों की स्थिति है, पति और पत्नी के रूप में, उसमें इस तीसरी सत्ता के प्रवेश और उसकी सशरीर उपस्थिति के लिए संभावना बहुत कम है।’’3

डाॅ. रमा जिस अस्पताल में काम करती है उसी अस्पताल में रामेसर एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है। अस्पताल में काम के पश्चात् वह एक पुरानी मोटर चलाता

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प्रयोगवाद और अज्ञेय

डा. रजनी सिंह



प्रयोगवादी कविता हिन्दी काव्य क्षेत्रा का एक आंदोलन विशेष है। प्रयोगवादी कविता आधुनिकता बोध सम्पन्न मानवतावादी कविता है, मानव नियति का साक्षात्कार उसका लक्ष्य है। कविता संप्रेषण व्यापार है, कवि भाषा नहीं शब्द लिखता है। काव्य में सभी गुण शब्द के गुण है। प्रयोगवाद में वस्तु और शिल्प का समान महत्त्व है वस्तु संप्रेष्य है विषय नहीं। वस्तु से रूपाकार को अलग नहीं किया जा सकता।

प्रयोगवादी कविता मानवतावादी कविता है और उसकी दृष्टि यथार्थवादी है, उसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श परिकल्पना पर आधारित नहीं है। वह यथार्थ की तीखी चेतना वाले मनुष्य को उसके समग्र परिवेश में समझने-समझाने का वैदिक प्रयत्न करती है। प्रयोगवाद में नया कुछ भी नहीं होता है। हो ही क्या सकता है, केवल संदर्भ नया होता है और उसमें से नया अर्थ बोलने लगता है। विवेक की कसौटी पर खरी उतरने वाली आस्थाएं ही ग्राह्य हो सकती हैं।

‘‘हिन्दी में प्रयोगवाद का जन्म सन् 1943 में अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार सप्तक से माना जाता है। सर्वप्रथम अज्ञेय ने ही कविता को प्रयोग का विषय स्वीकार किया। उनका मत है कि प्रयोगवादी कवि सत्यान्वेषण में लीन हैं। वह काव्य के माध्यम से सत्य का अन्वेषण कर रहा है।’’1

विचारणीय बात यह है कि प्रयोग क्यों और किसलिए? इसमें संदेह नहीं कि परिवर्तित परिस्थिति ने संवदेनशील प्राणी को झकझोर दिया था। उसमें आत्मान्वेषण की प्रवृत्ति जाग उठी थी। वैज्ञानिक दृष्टि ने जीवन को बौद्धिक जागरण के लिए विवश कर दिया था। जीवन के सभी मूल्य विघटित हो गए थे तथा इन मूल्यों के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गयी थी। प्रयोगवाद में उसी सत्य की खोज और प्राप्त सत्य को उसी रूप में संप्रेषित करने का कार्य हो रहा था।

इसके बार में अज्ञेय का कहना है कि- ‘‘हम वादी नहीं रहें, न ही हैं, न प्रयोग अपने आप में ईष्ट या साध्य है। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना कवितावादी कहना।’’2

तमाम ऊहापोह के बावजूद प्रयोगवाद प्रतिष्ठित हो चुका है। चाहें राग भाव में चाहें द्वेष भाव से। वस्तुतः आधुनिक परिवेश विघटन, संत्रास टूटन, अकेलापन और कुरूपता है, जिसमें आज का मानव कीड़े की तरह कुलबुला रहा है। वाह्य यथार्थ की प्रमाणिक अनुभूति आज की कविता का मूल स्वर बन गया है।

‘‘उस युग में भी कवियों का एक ऐसा वर्ग था, जिसने देश की समस्या को यथार्थ दृष्टि से देखना शुरू कर दिया था। वे जिस प्रकार अपने युग के यथार्थ के प्रति सजग थे, उसी स्तर का उनमें अपने कवि कर्म के दायित्व का भी मनन था।’’3

ऐसे कवियों के नेता अज्ञेय थे। अज्ञेय ने अपनी रचनाओं में मानव व्यक्तित्व की स्वाधीनता सर्जनात्मकता और दायित्व को प्रभावशाली रूप में करते हुए युग बोध को गहन संवेदना के ग्रहण करने की प्रक्रिया तथा उसकी अभिव्यक्ति को कवि कर्म की प्रमुख समस्या के रूप में घोषित किया। इसलिए पांचवे दशक की प्रमुख काव्यधारा प्रयोगवादी कवियों की

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हरिवंशराय ‘बच्चन’ के काव्य में विरलन का अध्ययन

डा. सुनील दत्त



विरलन: अर्थ एवं स्वरूप

विरलता अग्रप्रस्तुति का एक ऐसा अभिकरण है जो विचलन, विपथन, समानान्तरता से भिन्न है। कभी रचना में प्रयुक्त शब्द चयन, विचलन, समानान्तरता पर आधृत न होते हैं तथापि अपनी सार्थकता का अहसास कराते हुए अग्रप्रस्तुत हो जाते हैं ऐसे शब्दों को उन्मीलक शब्द (की वर्ड) की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।1

अनेक बार साहित्यकार अपनी कृति में प्रतिपाद्य विषय से सम्पृक्त करके उन्मीलक शब्द की गहन रचना को प्रदर्शित करता है, जिसमें कृति के कथ्य में विचलन, विपथन और समानान्तरता का अभाव होता है और साथ ही वह उसे विशिष्ट पद मानता है। पदबन्ध, वाक्य तथा प्रोक्ति द्वारा स्पष्ट करता है, तब उसे विरलन के अन्तर्गत माना जाता है।

‘विरलन’ अंगे्रजी शब्द ;त्ंतमदमेेद्ध का पर्यायवाची शब्द है। इसका सामान्य अर्थ है अनोखा। किसी रचना में प्रयोग किया गया वह भाव जो सामान्य से भिन्न हो, उसे ही विरलन माना जाता है। यह प्रयोग विरल होने के कारण पाठक का ध्यान यकायक अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है।

यद्यपि पाठ की भाषिक प्रमुखता या ‘अग्रप्रस्तुति’ अर्थ से जुड़कर कभी ‘विचलन’ के सहारे उपस्थित होती है, तो कभी ‘विपथन’ के सहारे और कभी ‘समानान्तरता’ के सहारे, किन्तु कृति अथवा पाठ में कभी-कभी ऐसी स्थिति भी उत्पन्न होती है जब वहाँ न तो ‘विचलन’ होता है, न ही विपथन और न ही समानान्तरता, फिर भी शब्द प्रमुख होकर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए अग्रप्रस्तुत हो जाते हैं। वस्तुतः ऐसे शब्द ‘उन्मीलक’ शब्द होते हैं, जो कृति अथवा पाठ की गहन संरचना से जुड़कर अर्थवत्ता का संचालन करते हैं। इनके हाथ में कृति अथवा पाठ के कथ्य का नियंत्राण-सूत्रा होता है। कृति अथवा पाठ में शब्द प्रयोगों की प्रायः दो कोटियाँ की गई हैं- 1. प्रतिपाद्य शब्द 2. उन्मीलक शब्द। प्रतिपाद्य शब्द किसी कृति अथवा पाठ में अनेकशः आवृत्त होते हैं। इसके विपरीत उन्मीलक शब्दों के प्रयोग विरल होते हैं। प्रतिपाद्य शब्द में क्रियाशीलता को सदैव समानान्तरता के अभिकरण के सहारे रेखांकित किया जाता है, किन्तु उन्मीलक शब्द को सदैव विचलन के सहारे रेखांकित नहीं किया जा सकता। यदि अव्याकरणिकता और अस्वीकार्यता उसके मूल में नहीं है तो विचलन नहीं होगा और यदि रचनाकार की ‘प्रायिक’ प्रत्याशित पद्धति के समनुरूप है तो विपथन भी नहीं होगा।

अतः विरल शब्द कृति में अन्य शब्दों की भाँति अनेकशः आवृत्त नहीं होते अपितु विरल होते हैं और कृति को सार्थकता प्रदान करते हैं। यह विरलता शब्द, वाक्य और प्रोक्ति स्तर पर दिखायी देती है।

शेष भाग पत्रिका में..............



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