स्त्री-मुक्ति के बनते-बिगड़ते समीकरण में बाज़ारवाद और मीडिया की भूमिका
शत्रुघ्न सिंह
लम्बे अवसान के बाद अब नारी जागृति का युग शुरू हुआ है। परंपरा से व्यक्तित्व हीनता व शाप ग्रस्तता का जीवन जीने वाली, दमित, शोषित स्त्री पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में अपने अधिकार, स्वतंत्राता व अपनी मुक्ति के लिए एक नया भाष्य गढ़ रही है। वह संघर्ष का एक नया तर्कपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रही है। उसके संघर्ष की इस चेतना के फलस्वरूप यह महसूस किया जाने लगा है कि ‘‘स्त्री की मुक्ति का सवाल, उसके अस्तित्व एवं मनुष्यत्व को स्वीकार करने का सवाल, आज मानवता का सबसे बड़ा सवाल है।’’1
स्त्री ने अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए जो संघर्ष शुरू किया, उसका सैद्धांतिक प्रतिफलन ‘नारीवाद’ है। नारीवाद स्त्री जीवन की समस्याआंे और उसके समाधान का एक वैचारिक आन्दोलन है। इसे परिभाषित करते हुए ‘इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में कहा गया है कि ‘‘यह एक ऐसा आन्दोलन है जो नारी को पुरुष के समान सम्मान और अधिकार प्रदान करेगा और अपनी जीविका और जीवन पद्धति के सम्बन्ध में स्वाधीन रूप से निर्णय देने का अधिकार देगा।’’2
नारीवाद में लैगिंक और सामाजिक, दोनों स्तरों पर स्त्री को पितृसत्ता की जकड़ बंदियों से बाहर निकालने का संकल्प है। उसमें उसकी शिक्षा, सम्पत्ति और लोकतांंित्राक अधिकारों को अर्जित करके उसकी स्वतंत्रा पहचान कायम करने का प्रयास है क्योंकि परम्परागत समाज में समस्त अधिकारों से हीन स्त्री केवल अपने ‘शरीर’ से पहचानी जाती है। यद्यपि प्रकृति ने दोनों का निर्माण मनुष्य के दो रूप नर व मादा में किया, किन्तु पुरुष ने अपनी अहं और श्रेष्ठता की भावना के वशीभूत होकर समाज में अपनी सत्ता कायम करने के लिए स्त्री के प्रति भेदभाव से भरी एक शोषण मूलक धर्म, संस्कृति, परम्परा व व्यवस्था का निर्माण किया। इसके लिए उसने स्त्री की देह को आधार बनाया। इसलिए आज हम स्त्री की किसी भी समस्या के मूल में झांकंेगे तो उसकी देह ही दिखाई देगी। ‘‘उसके किसी प्रकार के शोषण का प्राइम साइट उसका देह ही होती है। किसी प्रकार के स्त्री अपराध की बात करें; मारपीट, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, सती प्रथा, मीडिया में कमोडीफिकेशन, बलात्कार या मानसिक उत्पीड़न यहाँ तक कि गाली-गलौज के केन्द्र में भी स्त्री का शरीर ही रहता है।’’3
स्त्री-विमर्श की बात करते हुए इस बात पर विशेष बल दिया गया कि जब स्त्री के शोषण और उत्पीड़न का मुख्य कारण उसकी देह है तब उसकी मुक्ति और सशक्तिकरण का आरंम्भ भी उसकी देह से ही होना चाहिए। उसे इस अहसास से मुक्त करने का प्रयास होना चाहिए कि वह सिर्फ ‘देह’ है। इसलिए देह-मुक्ति वर्तमान स्त्राी-चिन्तन का मुख्य मुद्दा है और यह सौ फीसदी सच है कि ‘‘स्त्राी-मुक्ति का प्रस्थान बिंदु देह की मुक्ति ही होगा।’’4
स्त्री के लिए ‘देह-मुक्ति’ का अभिप्राय ‘अपने शरीर पर अपना दखल’ की आज़ादी प्राप्त करने से है; जिससे वह पहनने-ओढ़ने, बसों, टेªनों, में सफर करने, पढ़ने-लिखने में और विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में सहज व स्वाभाविक ढंग से पुरुषों के साथ रहने व काम करने में किसी भी तरह की कुण्ठा, भय या ही
शेष भाग पत्रिका में..............
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