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Sunday, October 24, 2010

स्त्री मुक्ति का भारतीय सन्दर्भ और महादेवी वर्मा

कुलभूषण मौर्य

भारत में स्त्री मुक्ति का आन्दोलन एक लम्बी यात्रा के बाद ऐसे मुकाम पर पहुच गया है, जहाँ एक ओर उसकी सफलता के गीत गाये जा रहे हैं, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की बात की जा रही है, तो दूसरी ओर उस पर एक आयामी एवं पश्चिम आयातित होने का आरोप लगाया जा रहा है। परन्तु भारतीय चिन्तन परम्परा पर एक दृष्टि डालने पर यह सिद्ध हो जाता है कि यह पश्चिम की देन नहीं है। नारीवादी आन्दोलन को महत्त्वपूर्ण दिशा देने वाली सीमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ (1949 ई.) के पहले ही महादेवी वर्मा की ‘शृंखला की कड़ियाँ’ (1942 ई.), नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक आ चुकी थी, जो ‘नारी मुक्ति के उपायों की ओर गहन चिन्तन और विद्रोही तेवर’1 के कारण ध्यान आकर्षित करती है। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ के पहले भी ‘थेरी-गाथा’, ‘सीमन्तनी उपदेश’, ‘स्त्री-पुरुष’ संज्ञान में है। स्त्री दृष्टि के कारण चर्चा में भी। भले ही उनकी लेखिकाओं के नाम ज्ञात हो या अज्ञात।’’2

व्यक्तित्व के स्तर पर स्त्री-मुक्ति के नये आख्यान रचने वाली महादेवी वर्मा का नारी सम्बन्धी चिन्तन भारतीय सन्दर्भ में स्त्री-मुक्ति का मार्ग तलाशने का सशक्त एवं सार्थक प्रयास है। भारत में पाश्चात्य नारी चिन्तन के माध्यम से उठे नारी आन्दोलन के कई दशक पहले महादेवी ने भारतीय नारी की समस्याओं को न केवल सशक्त ढंग से उठाया, बल्कि स्त्री एवं समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए सामंजस्यपूर्ण समाधान देने का भी प्रयास किया। ‘‘महादेवी पश्चिमी-नारीवादियों की तरह न तो कभी पुरुष-जाति का विरोध करती हैं और न ही पुरुष-प्रवृत्तियों को अपनाने की होड़ में यकीन करती हैं।’’3 उनका नारी विषयक चिन्तन बड़े ही शालीन ढंग से पुरुष वर्चस्ववादी समाज व्यवस्था पर अनेक सवाल खड़ा करता है। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में ‘‘उनकी नारी संवेदना के बौद्धिक एवं सामाजिक पक्ष का उद्घाटन हुआ है। रूढ़िवादी समाज और पुरुष प्रधान परम्परावादी दृष्टिकोण का एक तेजस्वी नारी द्वारा सांस्कृतिक सार पर तीव्र प्रतिवाद किया गया है।’’4

महादेवी पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करते हुए भी ‘‘नारी के जीवन की कठिनाइयों के लिए न केवल पुरुष को दोष देती है, बल्कि इसके लिए वे नारी को भी समान रूप से दोष देती हैं।’’5 वे नारी में चेतना के अभाव को ही उसकी सारी समस्याओं की जड़ में देखती हैं। तभी तो वे कहती हैं, ‘‘वास्तव में अन्धकार स्वयं कुछ न होकर आलोक का अभाव है।’’6

महादेवी स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक बनावट को ध्यान में रखते हुए उसे पुरुष का पूरक मानती हैं जिनके अन्र्तसम्बन्धों पर समाज की पूर्णता निर्भर है। उनका कहना है, ‘‘नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परन्तु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है, जिनकी पूर्ति पुरुष स्वभाव द्वारा सम्भव नहीं।’’7 वे नारी को पुरुष की ‘सहधर्मचारिणी’ और ‘सहभागिनी’ के रूप में देखती हैं, जिसका कार्य है, ‘‘अपने सहयोगी की प्रत्येक त्राुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनाना।’’8 इसको प्रमाणित करने के लिए वे मैत्रोयी, गार्गी, गोपा, सीता, यशोधरा आदि का उदाहरण भी देती हैं। परन्तु उल्लेखनीय है कि उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। वास्तविकता यह है कि स्त्री ‘स्वतंत्रा व्यक्तित्व से रहित पति की छाया मात्रा’ रही।

शेष भाग पत्रिका में..............



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