धर्म की वैदिक अवधारणा
अंजुम फात्मा
‘धर्म’ इस शब्द की आयु ऋग्वेद से लेकर आजतक लगभग चार हज़ार वर्षों की है। प्रथमतः ऋग्वेद में इसका दर्शन एक नवजात शिशु के समान होता है जो अस्तित्त्व में आने के लिये हाथ-पैर फैलाता जान पड़ता है। वहाँ यह ‘ऋत्’ के रूप में दृष्टिगत होता है जो सृष्टि के अखण्ड देशकालव्यापी नियमों हेतु प्रयुक्त हुआ।
वैदिक मन्त्रों का वर्गीकरण चार संहिताओं में करने वाले वेदव्यास के अनुसार प्रकृति के साथ-साथ व्यक्ति, राष्ट्र एवं लोक-परलोक सबको धारण करने का शाश्वत् नियम ‘धर्म’ है- धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मों धारयते प्रजाः। /यतस्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।।१
वैदिक ऋषियों से लेकर वेदव्यास जैसे महाभारतकार एवं चाणक्य जैसे कूटनीतिज्ञ भी मानव की उन्नति एवं समाज की सम्यक्गति का कारण धर्म को ही मानते हैं। धर्म२ शब्द ‘धृ’ धातु (ध×ा् धारणे) से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना। धर्म सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है, सबका पालन-पोषण करता है और सबको अवलम्बन देता है इसलिये सम्पूर्ण जगत् एकमात्रा धर्म के ही बल पर सुस्थिर है। ‘धृ’ धातु से बने धर्म का अर्थ वृष भी है-‘वर्षति अभीष्टान् कामान् इति वृषः।’३ अर्थात् प्राणियों की सुख-शान्ति के लिए, उनके अभिलाषित पदार्थों की जो वृष्टि करे तो दूसरी ओर धर्म का नाम ‘पुण्य’ भी है-‘पुनाति इति पुण्यम्’ यानि जो प्राणियों के मन-बुद्धि-इन्द्रियों एवं कर्म को पवित्रा कर दे। मनु के अनुसार धर्म के दस लक्षण है-धृतिक्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिनिन्द्रिय निग्रहः।/धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।४
आर्य धर्म के मूलाधार वेद, धर्म के प्रमाण स्वरूप सर्वोपरि है। भारतीय आस्तिक दर्शनों ने वेद की प्रामाणिकता स्वीकारी है। धर्मसूत्रों में जहाँ बौधायन५ वेद के पारायण को पवित्राीकरण साधन मानते हैं वहीं आपस्तंब६ के अनुसार धर्म एवं अधर्म का नीरक्षीर विवेक, वेद से ही प्राप्त होता है। धर्मसूत्रा, वेद को धर्म का मूल स्वीकारते हुए उसकी अलौकिक पावनकत्र्तृशक्ति के प्रति आस्थावान भी हैं।
ऋग्वेद संहिता भारतीय धर्म का प्राचीनतम एवं महत्त्वपूर्ण आधार है। ऋग्वेद का धर्म अनेक देवों की पूजा से सम्बन्ध रखता है।७ ऋग्वेद में हमें स्तुतिपरक मंत्रों के दर्शन होते हैं, जिनमें मैक्समूलर का हेनोथीज़्म है,८ जगत् सृष्टा के रूप में परमपुरुष की कल्पना का प्रतीक एकेश्वरवाद भी है एवं सर्वदेवतावाद९ या पैनथीज़्म भी है पर अन्ततः ‘‘एकं सद्धिप्राः बहुधा वदन्ति’’ कहकर ऋषि अद्वैतवाद का प्रतिपादन करते हैं। ऋग्वेद में देवताओं का अनिश्वर रूप में वर्णन है एवं उनके सामथ्र्य को प्रतिपादित करने वाले तीन रूप कहे गये हैं जो क्रमशः आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक है। ऋग्वेद में ‘ऋत’ एक कारण सत्ता का प्रतीक है एवं यह सत्ता सत्यभूत ब्रह्म है। विभिन्न देवता इसी मूलकारण के प्रतिनिधि स्वरूप कार्यरत हैं चाहे वह वृतहंता इन्द्र हों या
धृतव्रत वरूण या हव्यवाहन अग्नि अथवा प्राचीन होकर भी नित्य नवीन रूप में प्रकट होने वाली उषा हो। कुछ भावनात्मक देवताओं की भी कल्पना की गई है। एक सूक्त में ‘श्रद्धा’ व दो सूक्तों में ‘मन्यु’ का भी उल्लेख है। ऋग्वैदिक देवताओं का विकास बाह्य एवं अंतस् दो स्वरूपों में हुआ। आरम्भ में आर्यगण आकाश, पृथ्वी, वृष्टि आदि से आश्चर्य चकित थे, अतएव उन्हीं प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वीकार लिया ताकि उन देवताओं की कुदृष्टि से बचे रहें। बाह्य शक्तियों के साथ-साथ अंतस् शक्तियाँ भी मनुष्य को प्रभावित करती थी। बुद्धि ही ऐसी अंतस् शक्ति थी जो मनुष्य को उचितानुचित का दिग्दर्शन कराती थी अतएव यह सरस्वती रूप में पूजित हुई।10॰ आर्यांे ने देवताओं को मानवरूप में स्वीकार कर उनके मानवीकरण की संयोजना की। साधारणता मानवों की तुलना में देवतागण अवगुणरहित एवं अपार शक्ति सम्पन्न थे, पर ऋत के नियम उनके लिये भी अलंध्य थे।११
यजुर्वेद तथा ऋग्वेद के उपासनान्तर्गत धार्मिक स्वरूप में कोई भी मौलिक अन्तर नहीं हैं। देवसमूह अधिकांशतः वही हैं पर देवताओं की प्रकृति में कुछ अवान्तर परिवर्तन देखे जा सकते हैं। यथा-ऋग्वेद का प्रजापति यजुर्वेद का मुख्य देवता बन जाता है।
शेष भाग पत्रिका में..............
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