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Sunday, October 24, 2010

हिन्दी की बाल एकांकियों में बाल मनोविज्ञान

डा. कृष्णा हुड्डा

निस्सन्देह, बालक किसी भी देश के भविष्य- निर्माता होते हैं। सर्वांगीण विकास का भविष्य बालकों पर ही निर्भर करता है। इसलिए विकासकामी देश बालकों के विकास पर सर्वाधिक ध्यान देते हैं। यह विकास सर्वतोन्मुखी होता है तथा विकास की सारी योजना बाल मन से सम्बद्ध होती है। बालमन किसी भी चीज़ को जल्दी समझता है, जल्दी पकड़ता है और जल्दी अनुकरण करता है। शीघ्रता और चंचलता उनकी सहज प्रवृत्ति होती है। साहित्य की अनेक विधाओं में बालकांे का मन या तो कहानियों में रमता है या लघु एकांकियों में। एकांकियों या बाल एकांकियों से बालक शीघ्रता से किसी चीज़ का अधिगम करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दी में एकांकियों की एक लंबी परम्परा है।

जैसा कि नाम से ही राष्ट्र है कि बाल एकांकी बच्चों- बालकों के लिए लिखा जाता है और यह एक अंक का होता है। बाल एकांकियों का उद्देश्य होता है। बालकों का परिष्कार करना, उन्हें नैतिकता की शिक्षा प्रदान करना। बाल एकांकी अपने उद्देश्य में तभी सफल होते हैं, जब उनकी रचना बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर की जाती है।

जहां तक बाल एकांकियों के स्वरूप का प्रश्न है, उस बारे में ज्ञातव्य है कि अनेक विद्वान एवं लेखकों ने बाल एकांकियों पर प्रकाश डाला है। कुछ विद्वानों के मत यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं-

1. पंडित सीताराम चतुर्वेदी के अनुसार- बाल नाटकों से बच्चों को आचरण की सीख मिलती है। साथ ही बच्चों में सही ढंग से प्रस्तुतीकरण की क्षमता भी विकसित होती है।1

2. जयप्रकाश भारती के अनुसार- शिशु हो या बालक- अभिव्यक्त करना उसके स्वभाव में होता है। कह सकते हैं कि बच्चों द्वारा नाटक करना है, बड़ों ने उसे बाद में अपना लिया। अभिनय करने पर बालक में विश्वास जागता है। अपनी बात साफ-साफ कहने की क्षमता बढ़ती है। मनोरंजन तो होता है। यों तो पूरा जीवन ही रंगमंच पर अभिनय जैसा है।2

उक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि बाल एकांकियों का साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। बाल एकांकियों का स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि बालमन उससे सहज रूप से आकृष्ट हो जाये। उसकी भाषा सुबोध तथा संवाद छोटे और सारगर्भित होने चाहिए।

हिन्दी साहित्य में बाल एकांकियों का विकास और शुरूआत नया नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से ही बाल एकांकियों की रचना का दौर शुरू हो गया था। स्वयं भारतेन्दु ने सत्य हरिश्चन्द्र और अंधेर नगरी चैपट राजा लिखकर बाल एकांकियों के क्षेत्रा में पदार्पण किया था। डा. हरिकृष्ण देवसरे ने इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है कि हिन्दी में बाल नाटकों का आरम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से ही माना जा सकता है।...भारतेन्दु युग में बच्चों के नाटकों के लिए प्रेरणादायी सृजन कार्य हुआ है।3

बाल एकांकियों की रचना के क्षेत्रा में द्विवेदी युग में भी पर्याप्त प्रयास हुए। 1917 ई. नर्मदाप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित सरल नाटक माला (इसमें 44 बाल नाटक हैं) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसके बाद केशवचन्द्र वर्मा (बच्चों की कचहरी) कुदासिया जैदी (चाचा छक्कन के ड्रामे) की चर्चा आवश्यक है।

शेष भाग पत्रिका में..............

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