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Sunday, October 24, 2010

हिंदी और मराठी दलित आत्मकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन

डा. अशोक व. मर्डे

दलित साहित्य भारत के उन सभी शोषित, पीडित, अधिकार वंचित लोगों की दास्तान है। सदियों से अपने अधिकारों से वंचित एवं सदैव दुख दर्दे में छाये दासता का बोझ ढोते भारतवासियों की कहानी दलित साहित्य है। दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘दल’ धातु से हुई है। शब्द कोशों में दल शब्द के अनेक अर्थ देखे जा सकते है। जैसे - फटना, खंडित होना, द्विधा होना, दबाया, कुचला हुआ, खण्डित आदि। दलित शब्द के आशय के संदर्भ में डा. नरसिंहदास वणकर के अनुसार, ‘दलित शब्द से हिंदू जाति व्यवस्था तथा हिंदू जाति व्यवस्था द्वारा मान्य किये गये लोगों के समूह का अर्थ बोध होता है। उसी प्रकार दलित शब्द विशिष्ट वर्ग का वाचक है। इससे उपेक्षित जातियों का परिचय मिलता है। दलित शब्द समाज व्यवस्था-जाति व्यवस्था की ओर ले जाता है। दलित शब्द कल और आज के दलित को दिखाता है।दलित शब्द से विद्रोह, आक्रोश, क्रांतिकारी का अर्थ - बोध होता है।1

दलित साहित्य के बारे में कहा जाता है कि दलितों द्वारा, दलितों के लिए लिखा साहित्य ही दलित साहित्य है। तो कुछ लोगों का मानना है कि जिस साहित्य में शोषितों की जीवन कहानी है वह दलित साहित्य है। ‘दलित साहित्य, मानव मुक्ति का साहित्य है ही साथ ही यह शास्त्रों से मुक्ति की चेतना का साहित्य है। इस साहित्य में दलितोत्थान की मूल चेतना के साथ-साथ आम आदमी के दुख दर्द, उसके सामाजिक सरोकार आदि को नए सिरे से अभिव्यक्त करने का आग्रह है।2 इसमें दलित व्यक्ति के द्वारा ही लिखे होने का कोई सम्बन्ध नहीं। दलित साहित्य लेखक कोई भी, किसी भी जाति का हो सकता है जिसने यातानाओं को सहा है, किसी के शोषण को सहा है, जाति के नाम पर यातनाआं को झेला है।

हिंदी और मराठी साहित्य में दलित साहित्य ने अपनी अलग पहचान कायम की है। कबीर, रविदास, नामदेव, तुकाराम, चोखामेला, सोयराबाई आदि संत कवियों ने भी दलितों, शोषितों पीड़ितों के लिए पदों की रचनाएं कर दलित जीवन की त्रासदी को रेखांकित किया है।

हिंदी में दलित आत्मकथा की लेखन परंपरा मराठी के बाद की है। क्योंकि मराठी आत्मकथा की शुरूआत साठ के दशक से तो हिंदी में आत्मकथा की शुरूआत आठवें-नौवे दशक से मानी जा सकती है। डा. भगवानदास की ‘मैं भंगी हूं’ से हिंदी आत्मकथा की शुरूआत है तो मराठी में दलित आत्मकथा की कहानी कुछ निराली है। मराठी में दलित लेखक की परंपरा हिंदी दलित आत्मकथा की अपेक्षा बड़ी लंबी मानी जाती है। आधुनिक भाारत में हिंदी दलित साहित्य को मराठी की देन स्वीकार किया जाता है। अनेक भाषाओं में भी इस प्रकार का साहित्य लिखा गया लेकिन मराठी भाषा के समान यह साहित्य विकसित नहीं हुआ। मराठी भाषा में दलित साहित्य ने एक प्रकार से क्रांतिकारी विचारों को बड़े पटल पर और प्रचुर साहित्यकारों के माध्यम से वाणी दिलाने के प्रयास किए। औरंगाबाद से 1960 में अस्मिता और अस्मितादर्श पत्रिकाओं के माध्यम से दलित साहित्य ने अपनी पहचान कायम की। इसी पत्रिकाओं के माध्यम से पहली बार मराठी के केशव मेश्राम, बंधु माधव, राजा ढाले, नामदेव ढसाल, योगिराज वाघमारे, बाबुराव बागुल आदि लेखकों की संक्षिप्त आत्मकथा प्रकाशित हुई और तब से मराठी के अनेक बुजुर्ग लेखकों, युवकों ने अपनी आत्मकथाओं का लेखन कार्य शुरू किया। हर एक आत्मकथा लेखन

शेष भाग पत्रिका में..............

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