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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Sunday, October 24, 2010

शृंखला का द्वन्द्व घोष, कोई उधार न हो

डा. श्रीमती दया दीक्षित



जो सकार के अर्थां को प्राप्त करने के लिए क्रांतिदृष्टा, क्रांतिचेता और क्रांतिकर्ता होते हैं यही अर्थां में वे क्रांतिकारी, विचारक, प्रबुद्ध चिंतक कहे जाने अधिकारी हैं। ये विभूषण ऐसे ही लोगों पर फबते हैं, अपने पूरे वास्तविक और सही अर्थां में। जिसका खून माक्र्स के विचारों के रंग से रंगा हो, अगर वह मुक्तिबोध या निराला के तेवरों पर दिलोजान से फिदा न हो, तो क्या रीति की नीतियों पर फिदा होगा? सो अपने जोश और होश में इन विभूषणों को पैबस्त करने वाली कात्यायनी ने अपनी माक्र्सवादी रौ में माक्र्स और उसके समकालीन तद्देशीय और अन्य अंतर्राष्ट्रीय विचारकों ने विचार घोंट कर आत्मस्थ कर डाले। माक्र्स, हर्जन, ट्रोबोल्युबोब, टाल्स्टाय, मक्सिम गोर्की, लूशून, लोर्का, फेहिन, पाब्लोनेरूदा, नाजिम हिकमत, गोएठे...इन सबके सार को घटित करने की जद्दोजहद से जूझती हुई काव्य वस्तुओं का चित्राण करती हैं, विज्ञान उनका ज्ञान प्रदान करता है। आज के युग की मांग है जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसे वास्तविक जीवन में मूर्त किया जाये।1 अपने जीवन को प्राप्त ज्ञान से परिचालित करने वाली कात्यायनी के तीन चिंतन ग्रंथ बेहद महत्त्वपूर्ण हैं- दुर्ग द्वार पर दस्तक, कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत और षड्यन्त्ररत मृतात्माओं के बीच। उनके काव्य संकलनों में महत्त्वपूर्ण काव्य संकलन है- सात भाइयों में चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में और फुटपाथ पर कुर्सी, जादू नहीं कविता।

इनमें वे राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सामाजिक क्षेत्रों में व्याप्त समस्याओं, असमानताओं का विश्लेषण कहते हुए ग्लोब्लाइजेशन एवं विश्व बैंक की करतूतों जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का उसकी आर्थिक नीतियों षड्यंत्रों का पर्दाफाश करती हैं। किस तरह पूंजीवादी विश्व बैंक की वैश्विक षड्यंत्राकारी कुव्यवस्था अपना घर भरने के लिए हमारे देश की अर्थनीति को तहस नहस करने में लगी है। किस तरह से हमारी भूमि क्रय करके अधिग्रहीत कर रही है। किस तरह से कम दामों में हमारे देशी खून पसीने, श्रम को खरीद कर उसे निचोड़ चूस रही है। उन्हें बर्बाद कर रही है, किस तरह कच्चा माल और श्रम आयातित करके ले जा रही है, इस पूरी षड्यंत्राकारी कवायद को और इसे सफल बनाने वाली स्वदेशी गंदी घृणित राजनीति को बेनकाब भी कर रही है और उसके विरूद्ध लड़ाई भी लड़ रही है। उनकी यह लड़ाई पूंजीवाद से है, सांप्रदायिकता और वर्ग भेद से है। हर उस धिनौनी ताकत से है जो उनकी यह निर्बलों, दलितों, स्त्रिायों, बच्चों, श्रमिकों, सर्वहारा वर्ग को लगातार अपने शोषण के मकड़जाल में कसती फंसाती जा रही है। वे एक साथ ही माक्र्सवादी धारा से जुड़ी सक्रिय क्रांतिनेत्री हैं, प्रखर विचारक हैं, नारीवादी चिंतक हैं। उनके नारीवादी रूप पर मंगलेश डबराल के शब्द याद आ रहे हैं।

शेष भाग पत्रिका में..............

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