महानगरीय निम्न वर्ग की जीवन त्रासदी: ‘मुर्दाघर’
लवली शर्मा
वैभव के परिचायक महानगरों में जहां एक ओर गगनचुम्बी अट्टालिकायों व इमारतों में रहने वाले उच्चवर्गीय लोगों की दुनिया बसती है वहीं दूसरी ओर इसी दुनिया के समांतर कुत्तों, कौवों और रेंगते हुए कीड़ों से भी बदतर ज़िन्दगी व्यतीत करने वाले लाखों लोग फुटपाथों पर रहते हैं जिन्हें महानगर का सभ्य समाज जूठन और ग़न्दगी के अलावा और कुछ नहीं मानता। लेकिन फिर भी नैतिक मूल्यों से विहीन मानी जाने वाली यही दुनिया महानगरों का अभिन्न अंग है।
औद्योगिकरण के प्रसार के साथ-साथ महानगरों में रोज़गार अवसरों की संभावना भी बढ़ने लगी। उद्योगों की स्थापना के फलस्वरूप महानगर पहले से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये। उच्चस्तरीय शिक्षा, चिकित्सा, व्यापार, राजनीति एवं साहित्य आदि के केन्द्र होने के कारण महानगर लगभग सभी वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों, पुलों, सड़कों के निर्माण एवं अन्य कार्य हेतु छोटे व बड़े कारीगर तथा मज़दूर वर्ग गांव और कस्बों से पलायन कर महानगरों में आकर बसने लगते हैं। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि इन नगरों में सभी को जीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हों। इसी कारण अधिकांशतः नवागन्तुक यहां आकर मोहभंग का शिकार होते हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण महानगरीय समस्याएं भी बढ़ने लगती हैं जिनमें से आवास की समस्या सबसे अधिक विकट रूप धारण कर रही है। इसी समस्या के कारण महानगर के भीतर व बाहरी किनारों पर झुग्गी-झोपड़ियों एवं मलिन बस्तियों के रूप में अति निम्न वर्ग की दुनिया अस्तित्व में आयी है। भले ही महानगरीय जटिलताएं मध्य वर्ग के लिए भी पीड़ादायक प्रतीत होती हैं लेकिन ये जटिलताएं निम्न वर्ग को सबसे अधिक प्रभावित करती रही हैं।
इन मलिन बस्तियों में रहने वाले भिखारी, अपाहिज, कोढ़ी, रेड़ी लगाने वाले व्यक्ति, मज़दूर एवं अन्य छोटे-मोटे काम करने वाला यह गरीब वर्ग ज़िन्दगी की जद्दोजहद व लड़ाई में निरन्तर हार रहा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं यदि यह वर्ग ‘मूल्य’ जैसे शब्दों को समझने व पहचानने का सामथ्र्य न रखता हो। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने ऐसे ही वर्ग के विघटित सामाजिक व उनकी ‘इच्छा-आकांक्षाओं, सपनों आशाओं-निराशाओं, अच्छाइयों, बुराइयों को उनकी अभागी-अपाहिज ज़िन्दगी की अभिशप्त नियति को, उनकी सड़ांध से घिरी धूल और कीच में बखस औंधी पड़ी, फुटपाथ पर एकदम सपाट गिरी-लेटी मजबूर ज़िन्दगियों के आँसू-रीते दर्द को’’1 को अपने उपन्यास ‘मुर्दाघर’ में प्रस्तुत किया है। उनका यह उपन्यास महानगरीय परिवेश की सशक्त अभिव्यक्ति है जिसका कथ्य बम्बई महानगर की झोपड़ियों, फुटपाथों, पाइपों या खुले आसमान के नीचे बिना किसी छत के रह रहे बेघर निम्न वर्ग एवं वेश्याओं के जीवन के मार्मिक पक्षों का उद्घाटन करता है। इस उपन्यास के केन्द्र में ‘‘रंडियाँ हैं जो पूरी ज़िन्दगी घरबार और पति!’’ जोड़ने की अनथक कोशिशों में टूट रही हैं और स्वप्न पाल रही हैं (मैना)। ये उगती हुई नस्ल (राजू) के अंधकारमय भविष्य की चिन्ता से आक्रान्त हैं। शरीर पर सभ्यता के दिये हुए अमानवीय अघातों को झेलती हुई और शरीर को माँस की दुकान में बदलती हुई इन रंडियों की सारी ज़िन्दगी की कमाई कुल जमा पूँजी एक या दो रुपये की है जो किसी दुर्घटना से जूझते हुए बस के भाड़े या मुरदा ठिकाने लगाने वाले भंगी की सेवाओं के प्रतिमान में निकल जाती है
शेष भाग पत्रिका में..............
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