‘आधा गाँव’ के हिन्दू पात्र
डा- रमाकान्त राय
राही मासूम रज़ा का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गाँव’ (1966 ई.) हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक है। ‘वर्तमान साहित्य’ के ‘शताब्दी कथा साहित्य’ अंक में सदी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में ‘आधा गाँव’ को स्थान मिला था। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के एक गाँव ‘गंगौली’ को इसका कथा स्थल बनाया गया है। शिया मुसलमानों की ज़िन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज यह उपन्यास स्वतंत्राता प्राप्ति से पूर्व एवं बाद के कुछ वर्षों की कथा कहता है। स्वतंत्राता-प्राप्ति के बाद पाकिस्तान के वजूद में आने एवं जमींदारी उन्मूलन ने मियाँ लोगों की ज़िन्दगी में जो हलचल मचाई, उसकी धमक इस उपन्यास में सुनाई पड़ती है। मुहर्रम का सियापा; जो इस उपन्यास का मूल कथा-सूत्रा है, अपनी मनहूसियत एवं उत्सव के मिले-जुले रूप के साथ पूरे उपन्यास में पाश्र्व संगीत की तरह बजता है और अंततः शोक आख्यान में तब्दील हो जाता है। राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ को गंगौली के आधे हिस्से की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके लिए यह उपन्यास कुछ-एक पात्रों की कहानी नहीं बल्कि समय की कहानी है। बहते हुए समय की कहानी। चूँकि समय धार्मिक या राजनीतिक नहीं होता और न ही उसके सामाजिक वर्ग/जाति विभेद किए जा सकते हैं, अतः उसके प्रवाह में आए पात्रों का विभाजन भी संभव नहीं। हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक खाँचे में रखकर देखना तो और भी बेमानी होगा। बावजूद इसके अध्ययन का एक तरीका यह है कि यदि मानव समाज धार्मिक खाँचों में बँटा है, उसकी राजनीतिक चेतना पृथक् है और कालगत, देशगत एवं जातिगत विशिष्टता मूल्य निर्धारण में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती है तो उन भिन्नताओं में उनको विश्लेषित करना बेमानी हो जाता है।शेष भाग पत्रिका में..............
राही मासूम रज़ा का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गाँव’ (1966 ई.) हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक है। ‘वर्तमान साहित्य’ के ‘शताब्दी कथा साहित्य’ अंक में सदी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में ‘आधा गाँव’ को स्थान मिला था। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के एक गाँव ‘गंगौली’ को इसका कथा स्थल बनाया गया है। शिया मुसलमानों की ज़िन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज यह उपन्यास स्वतंत्राता प्राप्ति से पूर्व एवं बाद के कुछ वर्षों की कथा कहता है। स्वतंत्राता-प्राप्ति के बाद पाकिस्तान के वजूद में आने एवं जमींदारी उन्मूलन ने मियाँ लोगों की ज़िन्दगी में जो हलचल मचाई, उसकी धमक इस उपन्यास में सुनाई पड़ती है। मुहर्रम का सियापा; जो इस उपन्यास का मूल कथा-सूत्रा है, अपनी मनहूसियत एवं उत्सव के मिले-जुले रूप के साथ पूरे उपन्यास में पाश्र्व संगीत की तरह बजता है और अंततः शोक आख्यान में तब्दील हो जाता है। राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ को गंगौली के आधे हिस्से की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके लिए यह उपन्यास कुछ-एक पात्रों की कहानी नहीं बल्कि समय की कहानी है। बहते हुए समय की कहानी। चूँकि समय धार्मिक या राजनीतिक नहीं होता और न ही उसके सामाजिक वर्ग/जाति विभेद किए जा सकते हैं, अतः उसके प्रवाह में आए पात्रों का विभाजन भी संभव नहीं। हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक खाँचे में रखकर देखना तो और भी बेमानी होगा। बावजूद इसके अध्ययन का एक तरीका यह है कि यदि मानव समाज धार्मिक खाँचों में बँटा है, उसकी राजनीतिक चेतना पृथक् है और कालगत, देशगत एवं जातिगत विशिष्टता मूल्य निर्धारण में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती है तो उन भिन्नताओं में उनको विश्लेषित करना बेमानी हो जाता है।शेष भाग पत्रिका में..............
1 comments:
यह किताब क्या online पढने को मिल सकती है. मेरा ताल्लुक भे उसी गाँव गंगोली से है..यह किताब नहीं पढी
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